Tuesday, October 14, 2014

मीणा लोक साहित्य --1

       ----- ( होली गीत)------
ये फागुन के महिने में रात्रि के समय कुंवारी लड़कियों द्वारा गाया जाने वाला लोकनृत्य गीत (धोड़या गीत) है । इसमें गीतों के साथ साथ नृत्य भी होता हैं। इसमें लड़कियां 10-15 की टोली बनाकर दो समूहों में विभक्त हो जाती हैं। एक समूह की लड़कियां गाती हुई दूसरे समूह की तरफ़ तेजी से दौड़ती हुई जाती है तथा यही पुनरावृति दूसरे समूह द्वारा दोहराई जाती है।
इन गीतों का प्रतिपाद्य हंसी मजाक तथा साधारण से परिवर्तन के साथ दैनिक जीवन की घटनाओं पर आधारित होता है । इन गीतों को रात्रि के समय गाया जाता है । यहाँ कुछ स्फुट उद्धरण प्रस्तुत हैं -
होड़ी मंगड़े जब बूंद पड़े
सम्मत को घाटो नहीं मैया । होड़ी -----
आदिवासी समाज प्रकृति आधारित है अत: उसमें शकुन भी प्राकृतिक घटनाओं को ध्यान में रखकर समझे जाते हैं । मीणा अंचल में यह मान्यता है कि होली दहन के समय यदि बूंद पडती है तो उस वर्ष वर्षा का अभाव नही रहता ।
भाई रे मीणा गांगड़दी,
तैने बिन्या लगन होड़ी मंगड़ादी । भाई रे------
इस गीत में मनुवादी विचारधारा का तिरस्कार प्रतिफलित हुआ है । आदिवासियो के अपने नियम होते है उसी के आधार पर वे त्यौहार आदि को मनाते हैं।
नौ बीघा आरेड़,
बकरिया खा गई बूचा कानन की । नौ ---------
मीणा अंचल में पहले अरहड की खेती बहुत होती थी, अब इसमें कमी आई है । उसकी रखवाली की तरफ इस गीत में इशारा किया गया है ।
नौ मण जीरो नौ सै को,
मेरा जेठ बिन्या कुण बेचेगो । नौ -----------
जीरा भी पहले यहां की एक मुख्य फसल के रुप में किया जाता था जो सबसे मंहगा बिकता था । इस गीत में बताया गया है कि मंहगी वस्तु का बेचान जिम्मेदार व्यक्ति ही कर सकता है जो हिसाब किताब की समझ रखता हो । यहां घर मे जेठ को जिम्मेवार और घर का बडा होने के कारण यह अधिकार सिद्ध होता है ।
भाई रे छोरा पाखण्डी,
बाड़ा में खाय कुलामंडी । भाई --------
यह वाचाल किस्म के व्यक्ति की चारित्रिक गतिविधियो का अंकन ही इस गीत का प्रतिपाद्य रहा है ।
होड़ी आई होड़ी आई ढ़प ल्यादे
ई तो होगो पुराणों मैया और ल्यादे।
ग्राम्य अंचल में होली के उल्लास में ढप और चंग के साथ गायन की परिपाटी रही है ।
चणां कटै लम्बी पाटी में
भरल्या रै मोटर गाड़ी में ।
मीणा अंचल में पहले चने की फसल फरपूर मात्रा में होती थी । साथ ही इस गीत में कृषि मे आए मशीनीकरण के प्रयोग का भी पता चलता है ।
भाई रे छोरी मैणा की,
भरल्याई रे थाडी गहणा की ।
आभूषणों का शौक आदिवासी स्त्रियों में ज्यादा रहा है । चांदी और सोने के विभिन्न आभूषण शादी में भी दिये जाते हैं । अच्छी फसल होने पर आभूषण बनवाने के अनेक उदाहरण मीणा लोक गीतों मे मिलते है ।
बणियों करै हिसाब,
बरेणी दारी कूदी कूदी डोले गिराडा में।
बैसाख में फसल के पैदा होने पर किसान बनिये का हिसाब करता है साथ ही कुछ छूट करने की भी विनति करता है, परन्तु बनिया की स्त्री अपने कंजूस स्वभाव के चलते यह छूट प्रदान करने नहीं दे रही । इसी प्रवृत्ति को इस गीत में दर्शाया गया है ।
नया बैल की जौतन सू
मेरो गोज्यो भरगो लोटनसू ।
आदिवासी सदैव से कठोर परिश्रम से कृषि कार्य करता रहा है । खेत को जोतने के लिए 1980 से पहले हल-बैल ही प्रमुख साधन थे । नया बैल अधिक जुताई करता है जिससे ज्यादा जमीन जोती जा सके । इसके फलस्वरुप फसल में भी बढोतरी होती थी । इसी मनोदशा का वर्णन इस गीत की विषय वस्तु है ।

( साभार -- विजय सिंह मीणा जी की पुस्तक मीणा लोक साहित्य एवम संस्कृति से )


{एक टेंट में सेर में चणा सम्वत को धोखो नहीं मय्या..
रंडवो करे मजाक बरेणी दारी कूदी कूदी डोले गिराडा में...
होडी आइ होडी आई गुड ल्यादे, कंजी कू थोडी खड ल्यादे....
पलक्या पै पग जब दीज्यो, खंगवाडी मोय घडा दीज्यो....
दो भैसन का धीणा सू, मत भिडज्यो मोटा मीणा सू...
टोडा सु गूंजी ल्यावेगो, म्हारो बलम आज नही आवेगो ...
को जाऊ मैया कलवा कै, म्हारो जातेई हलवा कर देगो ...
को जाऊ मैया भैसन पै, म्हारी टुंडी देख पडो रडके...
सुण रै छोरा सासू का,  घडवा दै .. घडवा दै कुडंल कानन का..
पीलू को मचौल्यों मेरी जीजी क् सू ल्याई ...होलै होलै रै बलम न तोराळ्यो..
ढांढयोण को पेड़ महारा बाड़ा में दिन्गा दिन्गा रै ननद का गौणा मे..
दौरानी पै तीन चुटीला , एक दुवा दै देवरिया ..
याको बाप करे चुगली, मत बैठे मोरया या टुगली...
हलवो खायो रंडवा को, मोय लोभ दे दियो खंडवा को.....
गिर्राजी की जय बोले, रंडवा की नीत किस्यां डोले....
रंडवा की छान पै बिलाई डोले , रन्द्वो जाणे लुगाई डोले..}

मीणा लोकगीतों की मूल परम्परा मौखिक है, इसीलिए शास्त्रीय दृष्टि से इनके शैल्पिक गठन का निश्चित प्रारुप नहीं बन पाया है । इसके बावजूद यह सर्वाधिक जीवंत और हरियाली विधा है, जिसमें हजारो वर्षों का हमारा सांस्कृतिक इतिहास सुरक्षित है । इन्हीं के कारण गतिशील परम्पराएं व संस्कार आज भी हमारा मार्गदर्शन करते हैं । सनातन संर्घष और जीवट-जिजिविषा का ऐतिहासिक बीजभूमि का यह उर्वर दर्शन अपने आप में लोक जीवन का इतिहास है । इन लोकगीतों की भाषा, भाषा-शास्त्रियों के लिए अथाह सागर है जिसे बार-बार मंथन प्रक्रिया से गुजरना है । इन गीतों का एक-एक शब्द अपने आप में बहुत गहरे और गूढ अर्थ समेटे हुए है । नवीन शब्द-गठन, नये प्रतीक और सीधे सहज सरल भावों का यह भव्यतम कुबेर कोष है ।


Monday, October 13, 2014

मीणा लोक साहित्य --2

----कार्तिक स्नान गीत-----

मीणा अंचल में कार्तिक के महिने में प्रात: चार-पांच बजे उठकर स्नान कर देवी-देवताओं को जलअर्पण व पूजा अर्चना को शुभ माना जाता है । इसे पुरुष व महिला, बूढ़े एवं बच्चे सभी करते हैं ।

स्त्रियां एवं नवयुवतिया प्रात: ब्रह्ममुहुर्त में उठकर गांव के कुऐ पर जाकर स्नान करती हैं तथा इस समय गंगाजी व अन्य देवताओं से संबंधित गीत गाये जाते हैं । प्रात:काल की बेला में ये गीत इतने मधुर लगते हैं कि वातावरण बड़ा ही मनमोहक हो जाता हैं । इन गीतों को स्त्रियां बड़े ही ऊंचें सुर और मधुर आवाज में गाती हैं । इन गीतों से मन को विशिष्ट प्रकार की शांति मिलती हैं तथा दिन भर तरोताजगी महसूस होती हैं ।

गंगाजी के घाट पै सासू कातक न्हावै, हो राम…..

सासू कातक न्हावै हो राम

सुसरो सुखावे धौड़ी धोवती,

सासू केस सुखावे हो राम, सासू केस सुखावे

इन गीतों में गंगास्नान महात्म्य, नाम स्मरण की महिमा,देवताओं का सुमरण आदि पर विशेष बल दिया जाता है । राम-सीता की कथा पर आधारित गीतों एवं कृष्ण के चीरहरण आदि कथाओं पर आधारित गीतों की इनमें भरमार रहती हैं । कृष्ण द्वारा गोपियों का चीर चुराने पर आधारित यह गीत -

गंगाजी के घाट पै गूजरी कूदर न्हावै ।

चीर उतार कदम पै रख् दियो न्हावे दे दे ताड़ी,

आगे कान्हा गाय चरावे लेगो चीर हमारी,

चीर तुम्हारी जब ही मिलेगी जल से हो जा न्यारी,

चांद सुरज दौनू लाजन मारया धरती बोजन मारी।

इसी क्रम में सीता जी के जन्म आदि घटनाओं पर अवलम्बित इस गीत की धारा बड़ी ही मनोहारी है

गंगाजी के घाट पै एक कन्या तो जनमी हो राम

कन्या तो जन्मी मौज की सीता नाम धरायो, हो राम

नाम धरायों मौज को वाको धनुष बणायो, हो राम

धनुष ने तोड़े सीता नै ब्हावे, उतो राम बतायो, हो राम

रावर्ण सिर का घुड़ लिया वाकी आंगड़ी तो आगी, हो राम

नाम लियो भगवान को दशरथ जाया ने तोडयो, हो राम

धनुष तो तोड़यो राम ने वाकू सीता तो ब्याही, हो राम

इस गीत में धनुष भंग का वर्णन किया गया है तथा ईश्वर के नाम को ही सर्वोपरि बताया गया है । यहाँ रावर्ण की असफलता और सीता का राम के साथ विवाह का आंचलिक बोली में वर्णन एक अद्भुत रोमांच पैदा करता है ।प्रत्येक पंक्ति के अंत में राम के नाम के स्मरण को प्रश्रय दिया गया है ।


"जेसू न्हाऊँ रे जीजा कातिक ,मिल जाय तौ सर को भरतार..""कातिक ज्यों न्हावे ज्यों कलर चढें पतली सी छोरी पे ..""कातीक नाहाबा सु होगो र गोरो डील छोरि को .."

फल कातक को लेगो. रोडू छोंकडा नीचे...कातक न्हाबा सु केशन्ती , मिलेगो ्भरतार जीजो सो...कातिक न्हावे तो गोरन्ता, आजा कुआ का ढाणा में."कातिक नाही र भारो दुःख पाई र पाती रोड्लो आग्यो ।

मुढ़ा सु भी को बोल सासु को जायो जायो ।।"

"कातिक नाहव मंदर ढोक ,डिया की शुभकामना माग ।

काई चक्कर भायेली रोजीना ई आदी प जाग ।।"

लोकसाहित्य में लोक जीवन के अवलोकन के लिए यह निहायत जरुरी है कि हम उस लोकजीवन के प्रति सहज संवेदनशील हों । इन गीतों की भाषा शिष्ट एवं साहित्यिक ना होकर जनसाधारण की भाषा है और उसकी वर्ण्य-वस्तु लोक जीवन में गृहीत चरित्रों, भावों और प्रभावों तक सीमित है । इन कविताओ की जमीनी जिंदगी का वृक्ष की साख जैसा फैलाव है और उस पर निस्तब्ध पंख समेटे बैठी हुई एक उजले पंख वाली गोलमोल चिडिया के सादृश्य दिखने वाले ये गीत अंतर्मन की मुस्कान हैं ।

(साभार -  पुस्तक "मीणा लोक साहित्य एवम संस्कृति" से )


शिकार


अंग्रेजों के ज़माने की बात है.जंगलात महकमा के रेस्ट हाउस में एक अंग्रेज प्रवास कर रहा था. उसका शौक था शिकार करना और करवाना. एक आदिवासी उसका शौक पूरा करने के लिए रोजाना किसी न किसी जंगली जानवर का शिकार करके लाता था. कितने खतरनाक जानवर का शिकार वह आदिवासी करके लाया इस आधार पर अंग्रेज अफसर उस आदिवासी को ईनाम देता था. अंग्रेज अफसर शिकार किये वन्य जीवों की चीरफाड़ करने के पश्चात् उनके सिर को रेस्ट हाउस की दीवारों पर सजा दिया करता था.

एक दिन वह आदिवासी शिकार करके लाया और अंग्रेज अफसर को कहने लगा, 'हुजूर, आज मैंने सबसे खतरनाक जानवर का शिकार किया है. इसके सर को गर्दन सहित कौन सी दीवार के किस हिस्सा में टांगोगे ?' 

'पहले यह तो बताओ भई कि शिकार है कहाँ? मैं देखूं तो सही.'

'शिकार यह रहा.' बोरी को खोलकर शिकार बताते हुए आदिवासी ने कहा.

अंग्रेज अफसर शिकार देखते ही चौंका. शिकार के रूप में एक मनुष्य की लाश थी.

'तूने यह क्या गज़ब किया?' अफसर ने पूछा.

'माई बाप, गज़ब मैंने नहीं किया, गज़ब तो इस जानवर ने किया है. इस दरिन्दे ने मेरी बेटी के साथ बलात्कार करने के बाद उसका गला घोंट दिया. किसी जंगली जानवर ने आज तक ऐसा नहीं किया. इस जंगल में इस जैसा खतरनाक जानवर मैंने जीवन में पहले कभी नहीं देखा.


बेटी


आज हीरोपंती देखी, बहुत लोगो ने कहा अच्छी नहीं है,
मैंने सोचा एक बार देख
ली जाए क्या बुराई है,

फिल्म में हीरो -
हीरोइन की एक्टिंग का तो नहीं पता मुझे

लेकिन पूरी फिल्म मुझे विलेन
यानी की लड़की के बाप के कंधो पे टिकी लगी,
लड़की के बाप का रोल प्रकाश राज जी ने
बहुत ही बखूबी निभाया है, पहले भी ऐसे
विषयों पे फिल्म बन चुकी है,
जहा लड़की का बाप विलेन रहता है, मैंने
देखी भी होगी पर याद नहीं या उस समय
इतनी समझ नहीं थी.

लेकिन आज मैंने उस दर्द को महसूस किया,
कि जिस बाप की लड़की घर छोड़ कर भाग
जाए तो उस पर क्या बीतती होगी, फिल्म में
२० दिनों तक लड़की का बाप
अपनी लड़की को इसी आस में
तलाशता फिरता है
कि मेरी बेटी अपनी मर्जी से नहीं भागी,

उसे
वो लड़का भगा के ले गया, लेकिन जब वो उस
लॉज में जाता है जहा उसकी बेटी रुकी थी, उस
कमरे की हालत देख कर उसे समझ आ जाता है
की उसकी बेटी अपनी मर्जी से भागी थी, तब
वो टूट जाता है,

वह हीरो से कहता है कि कैसे
उसने २० साल अपनी बेटियों को अपनी जान से
भी ज्यादा प्यार किया, उन्हें
पढाया लिखाया, हर सुख दिया, और जब एक
दिन उसे उसकी वही बेटी एक बस में दिखती है
तो उस बस के पीछे भागता है पागलो की तरह

और बेटी बस से उतर कर जब ये कहती है कि आप
लोग क्यूँ कुत्तो की तरह पीछे पड़े है तो वो और
भी टूट जाता है.

बेटी और बाप का रिश्ता बहुत ही अलग
होता है, शुरू से देखा जाता है बेटी माँ से
ज्यादा अपनी पापा से अटैच होती है,

जब
स्कुल में कोई बच्चा उसे तंग करता है
तो वो कहती है कि मै अपने पापा से शिकायत
करुँगी, बाप अपनी बेटी को परछाई की तरह
रखते है, उस की हर तरह से सुरक्षा करते है,
लेकिन वही बेटी जब अपने बाप की इज्जत
नहीं करती, उसके प्यार को भूल जाती है

तो उस बाप को बहुत दुःख होता है,
मै ये भी नहीं कह रही की प्यार करना गलत
है, लेकिन आप किसी के साथ भाग कर
शादी करो इसके पहले अपने माँ बाप के बारे में
जरुर सोचो, आप उन्हें बता सकते है,
वो कभी भी आपका बुरा नहीं चाहेंगे, उन्होंने
हमसे ज्यादा दुनिया देखी है,

उन्हें पता है
की हमारा अच्छा क्या है और बुरा क्या है..

Tuesday, May 27, 2014

मीणा बनाम मीना

न्यायपालिका की कार्य प्रणाली और तत्सम्बन्धी निर्णयों का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का प्राथमिक और नैतिक दायित्व है। अपवादों को छोड़करन्यायपालिका के निर्णय गलत और अवैज्ञानिक नहीं होते हैं । अधिकांशतः निर्णय सटीक होते हैं । किन्तु, कुछेक निर्णय ऐसे भी होते हैं जिनमें असली तस्वीर सामने नहीं आ पाती, कुछेक निर्णय ऐसे होते हैं जिनमें कष्ट और पीड़ा के अनेक दृश्य सामने आते हैं, मनुष्य के अन्दर की मनुष्यता तार-तार होने लगती है। आरक्षण अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। इससे जुडे मामले में  अक्सर देखा गया है कि उच्च पीठ के निर्णयों को (एस पुष्पा बनाम मेरी चन्द्राशेखर) एकल पीठ बदल देती है और सरकार व सरकार की एजेंसियाँ हाथ-पर-हाथ रखकर तमाशबीन बनी रहती है, शायद उनको ऐसा होने या करने में आत्मिक सुख का अनुभव होता है जो मनुवादी और संकीर्ण ब्राह्मणवादी सोच का परिचायक होता है। देश में ऐसी कई संकीर्ण सोचवाली एजेंसियाँ और व्यक्ति मौजूद है जो सामाजिक समरसता, जातीय सौहार्द, राष्ट्रीय एकता और अखंडता उन्हें कतई पसंद  नहीं है, वे येन-केन-प्रकार्णेन इसे तार-तार करना चाहते हैं , ऐसी ताकतों के कुटीलतापूर्ण खेल को नियन्त्रित करने की महत्ती जरूरत है।   
निर्णय-प्रक्रिया न्यायपालिका के समक्ष रखे गये साक्ष्य, दस्तावेज़ों और चश्मदीद गवाह के बयानों के आधार पर ही लिये जाते हैं । किन्तु, यदि न्यायपालिका के समक्ष रखे गये सबूतों, कागजात उचित ढ़ंग से प्रस्तुत नहीं हो तो निर्णय-प्रक्रिया में खामिया आ सकती हैं, इसमें तनिक भी संदेह  की गुंजाइश  नहीं है। मीणा बनाम मीना के मामले में माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय पर भी तकनीकी सवाल उठाना जायज नहीं है। किन्तु, सरकार, सरकार के नुमांइदों और मामले को न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करने वाली मानसिकता पर सवाल उठने अत्यंत लाजिमी है क्योंकि बिना सोचे-समझे लिये गये फ़ैसलो से हमारे दीर्घकालिक हितों को नुकसान हो सकता है। यह  प्रवृति राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है, विशेषकर आरक्षण सम्बन्धी मामलों के कानूनी निर्णयन- प्रक्रिया में ।
न्यायालय में विचाराधीन याचिका में मीणा जाति को अनुसूचित जन जाति से बाहर करने की माँग की है। यह भी कहा गया है कि राजस्थान अनुसूचित जन जाति की सूची में क्रम सख्या 9 पर ‘मीना’ का उल्लेख है। जब मीणा शामिल ही नहीं है तो बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू करने की माँग का औचित्य नहीं  है। ‘मीणा बनाम मीना’ के अन्तःसम्बन्ध को ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और अर्थविज्ञान के मानदण्डों पर विवेचित करना अधिक समीचीन होगा । मानक हिन्दी की संरचना की  दृष्टि से ‘म’, ‘ण’, ‘न’ की तुलना में ‘ङ’ तथा ‘ञ’ का महत्व नगण्य है। इन दोनों व्यंजनों का प्रयोग केवल स्थान की दृष्टि से अपनी वर्गीय ध्वनियों के पूर्व में ही होता है अर्थात ‘ङ’ का प्रयोग ‘क’ वर्ग और ‘ञ’ का प्रयोग ‘च’ वर्ग से पूर्व होता है अन्यत्र नहीं । आवृति की दृष्टि से ‘न’ का प्रयोग अधिक होने के कारण ‘ङ’ और ‘ञ’ को ‘न’ का संस्वन माना जाता है । मानक हिन्दी में उसकी प्रकृति और प्रकार्य के अनुसार ‘न’ और ‘म’ नासिक्य ध्वनियॉ ही महत्वपूर्ण हैं । शब्दों के आदि,मध्य और अन्त में इनका स्वतंत्र प्रयोग होता है और अर्थ-भेदकता के कारण ये सभी स्वनिम है।
कालानुक्रमिक विकास की दृष्टि से संस्कृत के शब्दों में प्रयुक्त ‘ण’ ध्वनि हिन्दी तक आते-आते ‘न’ में तब्दील हो गयी। किन्तु, तत्सम शब्दों की दृष्टि से‘ण’ भी सार्थक नासिक्य है और केवल तत्सम शब्दों में प्रयोग की दृष्टि से स्वनिम माना जा सकता है, जो एतिहासिकता और प्राचीनता का द्योतक है। ‘ण’ और‘न’ ध्वनियों के ध्वनिगत और स्वनिमगत अन्तर और विभेद को समझने से पहले हमें एस एन त्रुवेत्स्काय और रोमन याकोब्सन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को समझना पडेगा। एक ही श्वासाघात में उच्चरित ध्वनि या ध्वनि समूह को अक्षर कहा जाता है, इसकी संरचना में एक स्वर होना अनिवार्य है, व्यंजन एक से अधिक हो सकते हैं । इसी तरह भाषाविज्ञान के सूक्ष्म सिद्धान्तों और अन्वेषणों को ध्यान में रखते हुए ‘ण’ और ‘न’ का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण भी तार्किक और अपरिहार्य है, तभी किसी तटस्थ परिणाम पर पहुँचा जा सकता है। रोमन याकोब्सन द्वारा प्रतिपादित अर्थभेदक-अभिलक्षणों का पुंज स्वनिम कहलाता है, यह काल्पनिक ध्वनि इकाई होती है जिसकी सत्ता भौतिक न होकर काल्पनिक होती है, जिससे अर्थ-तत्व  सृजित होते हैं ।
स्वनिम एकाधिक संस्वन का प्रतिनिधित्व करता है, जो ध्वन्यात्मक दृष्टि से मिलते-जुलते, अर्थभेदकता में असमर्थ तथा आपस में मुक्त या परिपूरक वितरण में प्रयुक्त होते हैं । वहीं, एक ही स्वनिम के विभिन्न रूप जो विशेष भाषिक परिस्थितियों में स्वनिम् का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें ध्वन्यात्मक समानता पायी जाती है, जो व्यतिरेकी वितरण में  न प्रयुक्त होकर परिपूरक वितरण; आदि, मध्य और अन्त  में प्रयुक्त होते हैं, संस्वन कहलाते हैं । इसका निर्धारण स्वनिमों के वितरण के आधार पर किया जाता है, जिसमें विरोधी, अविरोधी वितरण, परिपूरक वितरण एवं मुक्त वितरण की भाषावैज्ञानिक प्रक्रिया का विशेष योगदान है । इसी आधार पर ध्वनियों के अर्थ-निर्धारण की वैज्ञानिक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे रोमन याकोब्सन ने द्विचर विरोध या परिच्छेदक-अभिलक्षण के सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया । यह भाषाविज्ञान विशेष रूप से अर्थ-निर्धारण के क्षेत्र में सबसे बडी देन है। इस प्रक्रिया को विश्व के अधिकांश देशों में विधिक कार्यवाहियों की निर्णयन-प्रक्रिया में सटीक आधार बनाया जाता है।
लब्ध-प्रतिष्ठ विदेशी भाषातत्वज्ञ एल पी टेस्सिटरी, जान बीम्स, रेवरेड जी मैकेलिस्टर, सर जार्ज ग्रियर्सन और सुकुमार सेन, सुनीति कुमार चटर्जी, एम एस माहन्डगे, नाम वर सिह, कैलाश चन्द्र अग्रवाल एवं प्रोफ़ेसर राम लखन मीना इत्यादि भारतीय भाषाविज्ञानी आदि ने अपने अन्वेषणशील शोध-कार्यो के माध्यम से प्रतिपादित किया कि हिन्दी और राजस्थानी भाषाओं में कमोवेश समान रूप से सभी ध्वनियाँ प्रयुक्त होती है। किन्तु, उभय भाषाओं में ‘ण’ और ‘न’ ध्वनियों के बीच व्यतिरेक मिलता है, हिन्दी में ये दोनों व्यतिरेकी हैं वहीं राजस्थानी में ये ध्वनियॉ परिपूरक वितरण में प्रयुक्त होती हैं । उच्चारण-स्थान और उच्चारण-विधि कीदृष्टि से ‘ण’ मूर्धन्य, नासिक्य, सघोष,अल्पप्राण, ‘न’ वर्त्स्य, नासिक्य, सघोष,अल्पप्राण के रूप में अधिक समीप है । इसमें  इन ध्वनियों से युक्त शब्द बहुलता से मिलते हैं जो कि राजस्थानी की मौलिक विशिष्टता है । ‘ण’ ध्वनि हिन्दी में केवल तत्सम शब्दों में ही मिलती है, अन्यत्र इसका प्रयोग नगण्य है जबकि राजस्थानी में ‘ण’ का प्रयोग बहुलता से होता है और ‘णकारान्त’ राजस्थानी की प्रमुख एवं स्वाभाविक विशेषताओं में से एक है । यह प्रवृति  राजस्थानी में अपभ्रंश  काल से ही आरम्भ हो चुकी थी जो राजस्थानी भाषा के हिन्दी से भी अधिक प्राचीन और समृद्ध  होने का प्रमाण है । यही कारण है कि राजस्थानी में जीवन का उच्चारण जीवण, रानी का उच्चारण राणी, मीना का उच्चारण मीणा जैसे अनगिनत अनेकानेक उद्वरहण भरे पडे हैं। व्युत्पत्ति विज्ञान के सिद्धान्त अनुसार ‘मीणा’ शब्द मयण,मयणा,मैयणा,मैणा,मीणा तथा हिन्दी भाषा के मानकीकरण की प्रक्रिया में ‘मीना’ मानक शब्द के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है, दोनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक है । इतिहासकार कर्नल जेम्स टाड, गौरी शंकर हीरा नंद ओझा, अन्य विभिन्न इतिहासकारों तथा नृविज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि जहाँ राजस्थान के विभिन्न भागों में इसे मीणा, मेणा, मैणा आदि नामों से पुकारा जाता है, वहीं राजस्थान के बाहर यह समुदाय ‘मीना’ जाति के रूप में जानी जाती है । राजस्थान के बाहर निवास करने वाले ‘मीना समुदाय’ को आरक्षण के लाभ से वंचित भी किया गया है जबकि वह अपने उपनाम के रूप में ‘मीना’ शब्द का ही प्रयोग करते हैं । पुरातत्वविद् फ़ादर हेरास भी सटीक विश्वास रखते थे कि राजस्थान में निवासित आधुनिक ‘मीणा’ पूर्व आर्य काल के ‘मीन’ गण चिह्न वाले लोगों के वंशज है जो कबीलों के रूप में जंगलों में रहने हैं । मीन पुराण के रचयिता एवं राजस्थानी और भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ श्री मुनि मगनसागर की प्रतिस्थापना है कि ‘मीना’ जाति राजस्थान में ‘मीणा’ कहकर पुकारी जाती है, अतः राजस्थान के सन्दर्भ में ‘मीना’ और ‘मीणा’ एक ही जाति समुदाय के उच्चारणगत भेद हैं ।
भाषाविज्ञानी और अनुवादवेत्ता के रूप में मेरा मानना है कि वस्तुत: मीणा बनाम मीना की समस्या हिन्दी और राजस्थानी की समस्या नहीं है क्योंकि राजस्थानी के सन्दर्भ में ‘ण’ और ‘न’ के बीच स्वनिम और संस्वन का सम्बन्ध है, अर्थगत नहीं । दरअसल समस्या की जड़ अनुवाद से जुड़ी है जिसमें (mina) का अनुवाद केवल “मीना” कर लिया गया है। राजस्थान के सन्दर्भ में इसका अनुवाद “मीना और मीणा” दोनों होना चाहिये या दोनों का अर्थ-संज्ञान एक ही रूप में लेना चाहिये। मीना की अपेक्षा मीणा शब्द राजस्थानी भाषा और आदिवासी संस्कृति के अधिक निकट है, मौलिक है, स्थानीय है जिसकी व्युत्पति गूगल सर्च पर उपलब्ध सामग्री एवं विश्व की भाषाओं की एट्लस एथनोलोग के विश्लेष्ण में शामिल किया गया है जिसको अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में लिप्यान्तरित किया गया है । किन्तु, याचिका कर्ता की संकीर्ण सोच और शान्तिप्रिय राजस्थानी माहौल में वैमनस्य फ़ैलाने के कलुषित उद्देश्य दायर की गयी याचिका में थोडे से सन्दर्भगत एवं अनुवादगत भेद के कारण न्यायपालिका ने एक नये विवाद को पनपाने की ओर अग्रसर है जिसके पीछे क्या सोच रही होगी, यह कहना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अर्थदीप्तियों और अर्थ-निष्पतियों के आधार पर निर्णय देने वाली न्यायपालिका स्थूल और यादृच्छिक अर्थ-निर्णय की ओर क्यों अग्रसर है और  जिसका हल बेहद पेचीदा किस्म का है ।

Saturday, May 24, 2014

देसी फ्रिज



मिट्टी के पात्रों का इतिहास हमारी मानव सभ्यता से जुड़ा है। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में अनेक मिट्टी के बर्तन मिले थे। पुराने समय से कुम्हार लोग मिट्टी के बर्तन बनाते आ रहे हैं। कुम्हार शब्द कुम्भकार का अपभ्रंश है। कुम्भ मटके को कहा जाता है, इसलिए कुम्हार का अर्थ हुआ-मटके बनाने वाला। पानी भरने के साथ-साथ हमारे पूर्वज भोजन पकाने और दही जमाने जैसे कार्यों में भी मिट्टी के पात्रों का इस्तेमाल करते थे। वे इन बर्तनों के गुणों से भी अच्छी तरह परिचित थे। चलिए जानते हैं कि इन बर्तनों के इस्तेमाल से लाभ....


हमारे यहां सदियों से प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी का इस्तेमाल होता आया है। दरअसल, मिट्टी में कई प्रकार के रोगों से लड़ने की क्षमता पाई जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार मिट्टी के बर्तनों में भोजन या पानी रखा जाए, तो उसमें मिट्टी के गुण आ जाते हैं। इसलिए मिट्टी के बर्तनों में रखा पानी व भोजन हमें स्वस्थ बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। मिट्टी की छोटी-सी मटकी में दही जमाया गया दही गाढ़ा और बेहद स्वादिष्ट होता है। मटके या सुराही के पानी की ठंडक और सौंधापन के तो क्या कहने!!!!!!!!!!!!!


गर्भवती स्त्रियों को फ्रिज के बेहद ठंडे पानी को पीने की सलाह नहीं दी जाती। उनसे कहा जाता है कि वे घड़े या सुराही का पानी पिएं। इनमें रखा पानी न सिर्फ हमारी सेहत के हिसाब से ठंडा होता है, बल्कि उसमें सौंधापन भी बस जाता है, जो काफी अच्छा लगता है ।गर्मियों में लोग फ्रिज का या बर्फ का पानी पिते है ,इसकी तासीर गर्म होती है.यह वात भी बढाता है। बर्फीला पानी पीने से कब्ज हो जाती है तथा अक्सर गला खराब हो जाता है।

मटके का पानी बहुत अधिक ठंडा ना होने से वात नहीं बढाता ,इसका पानी संतुष्टि देता है। मिटटी सभी विषैले पदार्थ सोख लेती है तथा पानी में सभी ज़रूरी सूक्ष्म पोषक तत्व मिलाती है। मटके को रंगने के लिए गेरू का इस्तेमाल होता है जो गर्मी में शीतलता प्रदान करता है । मटके के पानी से कब्ज ,गला ख़राब होना आदि रोग नहीं होते ।


सावधानी 
सुराही और घड़े को साफ रखें, ढककर रखें तथा जिस बर्तन से पानी निकालें, वह साफ तरह से रखा जाता हो। मटकों और सुराही का इस्तेमाल करने के भी कुछ नियम होते हैं। इनके छोटे-छोटे असंख्य छिद्रों को हाथ लगाकर साफ नहीं किया जाता। बर्तन को ताजे पानी से भरकर, जांच लेने के बाद केवल साधारण तरीके से धोकर तुंरत इस्तेमाल किया जा सकता है। बाद में कभी धोना हो, तो स्क्रब आदि से भीतर की सतह को साफ कर लें। मटकों और सुराही के पानी को रोज बदलना चाहिए। लम्बे समय तक भरे रहने से छिद्र बंद हो जाते हैं।




Thursday, May 22, 2014

मीणा

मीणा और भील जनजातियों की उत्पत्ति के बारे में अनेक किवदंतियां प्रचलित है। उनमें से अधिकांश तो सर्वथा अविश्वसनीय हैं। इतिहासकार रावत सारस्वत के अनुसार मीणा लोग सिंधु घाटी सभ्यता के प्रोटां द्रविड़ लोग हैं, जिनका गणचिन्ह मछली था। आर्य लोग इन्हें मीन शब्द के पर्याय मत्स्य से संबोधित करते रहे, जबकि ये लोग स्वयं को मीना ही कहते रहे। पर्याप्त समय बीत जाने पर वैदिक साहित्य में इन्हें आर्य मान लिया गया था। ये लोग सीथियन, शक, क्षत्रप, हूण जाति के वंशज न होकर यहां के आदिवासी ही माने जाते हैं, जो भले ही कभी पुरातन काल में बाहर से आकर बसे हों। इतिहासकारों के अनुसार आर्यों तथा अन्य जातियों के खदेड़े जाने पर ही ये सिंधु घाटी से हटकर अरावली पर्वतमाला में आ बसे, जहां इनके गोत्र आज भी हैं। (मीणा इतिहास, पृष्ठ 21) विभिन्न ग्रंथों में मीना शब्द की व्याख्या इस प्रकार से की गयी है। मीनाति मन्युनीति मीन (अभियान चिंतामणिकोष) अर्थात् दुष्टों को मारने वाली जाति को मीना कहते हैं। मी बधे, त्रियाडम शब्दसेट, मीनाति, मीनीते, आसीत आमास्तावतः मीनाः (अभियान चिंतामणि कोष) अर्थात अनार्थ दैत्यों का वध करने वाली क्षत्रिय जाति को मीना कहते हैं। हिन मीना पाणि केन मीनो, इति निपात्यते सिद्धांत कौमुदी अर्थात दुष्टों को मार कर गौ-ब्राह्मण की रक्षा करने वाले वीर क्षत्रिय समाज को मीना कहते हैं।

Thursday, March 13, 2014

पद

धवले अपनी मिठास भरी आवाज में हमारे मन के तारों में अनुगूंजें पैदा करते हुए गाते हैं-

कछु लाकड़ी चीकणी, कछु भोंटी करवाड़ी 
चंदा को इ नहींअ बजीअ दोनूं हाथन से ताड़ी।

विवाद की षुरूआत होती है यहाँ से। स्त्री-पुरूष सम्बन्ध में आए इस पेच से। इस तरह के पेचपूर्ण प्रकरण हमारे समय में घर-घर की कहानी नहीं भी हैं तो गांव-गांव की कहानी तो जरूर हैं। एक पौराणिक कथा के माध्यम से स्त्री-पुरूष सम्बन्घ की जटिलता को सामने लाना पद को एक सारगर्भित प्रासांगिकता देता है। रचना में एक तो प्रेम कहानी का वर्णन दूसरा इन प्रेम कहानियों पर हमारा समाज किस तरह प्रतिक्रिया करता है उसे प्रमुख कथा-वस्तु के रूप में प्रस्तुत करना इस पद की जनता में अपील को बढ़ा देता है। इस अपील के बढ़ने में गायक द्वारा कथा की महीन बुनावट का बहुत योगदान है। प्रेम प्रसंग के एक कदम चलने से पहले ही मामला पंच-फैसले के अधीन चला जाता है। पंचायत की उठा-पटक पर जाने से पहले यह जान लेना दिलचस्प होगा कि सिलसिला शुरू कैसे हुआ ? सिलसिला ऐसे शुरू हुआ कि तारा और चन्द्रमा के बीच कुछ-कुछ चल तो रहा ही था एक रोज चन्द्रमा विद्यार्जन के लिए गुरू के पास नहीं पहुंचता है। गुरू ने दो शिष्य भिजवाए-

घर पै पहुंच गए दो चेला
जातैई दियौ चांद कू हेला

अब चंदा बोल्यो नाय देख जा बैठ्यो छा जा पै 
गुरू बिसपत की तारा नार खड़ी पायी दरवाजा पै

अब आप बिम्ब देखिए कितना सुंदर है। चन्द्रमा घर के छज्जे पर चुपचाप बैठा दिखाई दिया। जैसा कि हम उसे जीवन में देखते हैं। घर के दरवाजे पर खड़ी दिखती है प्रेम कथा की नायिका तारा। तारा जब उन शिष्यों को इंकार में जवाब देती है तो चन्द्रमा की चुप्पी अर्थवान हो उठती है। कहने की जरूरत नहीं कि उस चुप्पी का निहितार्थ यह है कि चन्द्रमा न कहते हुए भी यह कह रहा कि ‘भाईयों मैं और तारा साथ रह रहे हैं तो यह मेरी अकेले की मर्जी नहीं है।’ तारा के दो टूक जवाब से बात और भी साफ हो जाती है-

मोकू गुरू गुड़ फीको लग्यौ स्वाद चेला काइ लपटा में 
मैं दुख-सुख लऊँगी काट बैठ चंदा का छज्जा पै

तारा का प्रेम कितना सरल और कितना सच्चा है कि वह वहाँ रहकर दुख-सुख काटने की बात करती है जहां बैठना चन्द्रमा को प्रिय है। छज्जे पर। यूँ वह यह कह ही देती है कि मुझे गुरू गुड़ फीका लगा है और चन्द्रमा का पानी का लपटा ही स्वादिष्ट लगा है। एक भागी हुई स्त्री की मूलभूत भावना का ऐसा नग्न चित्रण लोकगीत में ही संभव है। लोकगीतों की यही वह विशिष्टता है जो साहित्य की तमाम आधुनिक, उत्तर आधुनिक उपलब्धियों के बीच उनके स्थान को अक्षुण्ण बनाए रखती है।

जब शिष्य गुरू को जाकर सारी बात बताते हैं तो गुरू सबसे पहला काम जो करतें हैं वह है-चन्द्रमा को ‘रेस्टीकेट’ करने का काम। युवा छात्रों की विद्रोह-भावना को दबाने की शिक्षक की सबसे निरीह कार्यवाही-

कियो चेला नै खोटो काम 
मंगा रजिस्टर लियो काट दियो चन्दरमा को नाम।
अरे वा दुष्ट नै तनिक न कियो विवेक
और वाइ हांडी में खा गयो स कोई वाइ में कर गयो ठेक।

जिस थाली में खाना उसी में छेद करना-यह एक लोकोक्ति है। यह लोकोक्ति विद्रोह को दबाने के लिए रूढ़िग्रस्त समाज से सहयोग के लिए भावानात्मक अपील का काम करती है। और व्यापक समर्थन पाकर रहती है। गुरू वृहस्पति समाज का समर्थन प्राप्त करने के लिए तर्क देते हैं-

आज तो घरवाड़ी गई म्हारी, तड़कै जायंगी नार तुम्हारी
इस्यां तो जणा-जणा की जायंगी, घर-घर में नार उकतायंगी 
मुसकिल बोदा आसामी की, करौ पाबंदी बैरबाणी की
तड़कै मुल्जिम कू बुलवाल्यौ और पंचन पै न्याय करा ल्यौ
और जुवाड़वाद्यौ पंचात कराद्यौ चन्दरमा पै दण्ड
और करो जात सूं बाहर करौ वाकौ हुक्का पाणी बंद। 

वृहस्पति कह रहे हैं- ‘आज तो मेरी स्त्री गई है, कल को आपकी भी जा सकती हैं। और ऐसे छोटी-मोटी बातों से परेशान होकर हर किसी की स्त्री जाने लगी तो क्या होगा इस समाज-व्यवस्था का। इसलिए सबसे जरूरी है स्त्री के ऐसे दुस्साहस पर फौरन प्रतिबंध लगाना और इस अपराध में शरीक चन्द्रमा को जाति से बहिष्कृत करना। उससे किसी तरह का कोई सम्बन्घ नहीं रखना।’ निहितार्थ ये कि अकेले आदमी को टूट कर झुकने में देर ही कितनी लगती है।

तय होता है अमुक दिन पंचायत होगी और उसी में मामले का निपटारा होगा। वृहस्पति अपने जातिभाईयों से सलाह मशवरा करते हैं। उधर जाति के नाम पर चन्द्रमा के समर्थन में भी आधे पंच आ जाते हैं। राजनीतिक खेल शुरू हो जाता है। राजनीति के अखाड़े में पहुंचकर व्यक्तिगत भावनाएं, संवेदनाएं सदा कुचली ही जाती हैं। कोई भी मामला वहाँ वर्चस्व प्राप्ति के मोहरे से अधिक कुछ नहीं है। चन्द्रमा समर्थकों का मुख्य तर्क यह है कि एक बार आई हुई स्त्री ऐसे कैसे वापस हो जाएगी। हम देखते हैं कल पंचायत होती कैसे है। भैंस तो लाठी वाले के पास ही रहेगी। उधर वृहस्पति समर्थक यह कहते हुए बांहें चढ़ा रहे हैं कि हमारी स्त्री गई है, कोई हंसी खेल नहीं है। जब तक हाड़ के ऐवज में हाड़ यानी स्त्री के बदले स्त्री नहीं ले लेंगे तब तक चन्द्रमा को सुख से नहीं जीने देंगे। आज भी यह एक कटु यथार्थ है कि बदला लेने का सीधा सरल जरिया स्त्री है। उसकी इज्जत से खेल कर बदले की आग बुझायी जाती है। हमारे आसपास ऐसा है, इस अर्थ में आज भी हम बर्बर सामाजिक जीवन जीते हुए उम्र के दिनों को व्यतीत करते हैं। दोनों धड़ो के बीच एक स्त्री, स्त्री नहीं हुई, खिलौना हो गई। चन्द्रमा के अलावा हर कोई स्त्री को जीत कर वर्चस्व की राजनीति का धूर्त खेल खेलना चाहता है।

पंचायत जुड़ती है। चन्द्रमा और तारा तलब किए जाते हैं। तारा को बताना है कि वह किसके साथ रहना चाहती है। तो वह बताती है-

वा नारी नै घूंघट काडी, और पंचन में होगी ठाडी।
गुरू के घर में पग नहीं दूंगी, और मैं तो चन्दरमा कै ही रहूंगी।
और हाथ जोड़ के कहूं पंच थारै जचै जिस्यांई कीज्यौ 
पण मेरी बेई नाम गुरू बिसपत को मत लीज्यौ।

घूंघट निकाल कर तारा पंचों के बीच खड़ी होती है और कहती कि गुरू के घर में पैर भी नहीं रखूंगी और मैं तो चन्द्रमा के साथ ही रहूंगी। तारा पंचों से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती है कि आप चाहे जो भी फैसला करें लेकिन मेरे सामने गुरू वृहस्पति का नाम भी न लें।

इसके बाद कहने और सुनने के लिए क्या बाकी रह जाता है। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज को सुनता कौन है! पंच फैसला सुनाते हैं कि चन्द्रमा तुम गुरू की पत्नी को वापस करो। उधर चन्द्रमा समर्थक कहते हैं ये फैसला एकतरफा है। पंचायत बिगड़ जाती है। हुल्लड़ मच जाता है। भगदड़ में कोर्ह कहां गिरता है कोई कहां। किसी की पगड़ी उछलती है तो किसी की धोती फटती है। धवले कहते हैं कि-

‘पंचात डटी नहीं डाटी। रहगी धरी दाड़ और बाटी।’ 

रोकने से भी कोई पंचायत में नहीं रुका। बेचारे गुरू वृहस्पति की घबराहट बढ़ गई परंतु उनके धड़े के लोग वर्चस्वशाली थे। कहने लगे ऐसे कहां तक डरेंगे। शास्तर से बात नहीं बनती दिखी तो इस बार वे शस्त्र के साथ आए और तारा को वृहस्पति के हवाले करवाया।

ये जिन्दगी बड़ी जानलेवा चीज है मित्रो। तारा ने गुरू के घर आकर चन्द्रमा को गाली देना शुरू कर दिया- ‘मुझे उस दुष्ट, उस हरामी चन्द्रमा से कोई प्रेम व्रेम नहीं था। वो तो तुम्हारे नाम से मुझे बहका कर ले गया और ले जाकर अपने घर में बैठा लिया।’ अब इसे क्या कहें ? तारा तब सच कह रही थी कि अब ? इसकी जांच किस नारको टेस्ट से की जाए ? उधर वृहस्पति ने अपने दिल को कौनसी विद्या से यह समझाया कि ताकत के बल पर लौटा कर लाई गई तारा अब उसकी हो गई ? ऐसा धुर विरोधाभासी जीवन कैसे जिया जा सकता है? मगर हमारे समाज की विवाह नामक संस्था से ऐसे विरोधाभासी जीवन को उपहार में पाकर हर शादीशुदा जोड़ा ऐसा ही विरोधाभासी जीवन जीने को अभिशप्त है। और यह तो कुछ भी नहीं ग्रामीण सामंती समाज में तो यहाँ तक है कि स्त्री के पति का निधन हो गया तो छोटे भाई का पछेवड़ा/चादर उसे ओढ़ायी जाती है। बच्चे-बच्ची गर्भ में होते हैं यह पता नहीं होता बच्चा होगा या बच्ची और रिश्ता पक्का कर दिया जाता है। गर्भ में ही तय हो गए रिश्तों में ऐसा होना आम बात है कि संयोग से यदि एक गर्भ से लड़का और एक से लड़की पैदा हो भी गए और उनका विवाह माता-पिता ने गोद में लेकर फेरे डलवाकर करवा भी दिया तो भी भारत जैसे देश में जहां कुपोषण बड़ी समस्या है। बच्चे मर भी जाते हैं। ऐसे में वह विवाहित बालिका अपने पति की मां की कोख से अगले पुत्र के आने की प्रतीक्षा करती है। कितने मजे की बात है बाल्यवस्था से ही पति की सेवा का सुख भोगती है! जिन्दगी की जिल्लतें प्रेम जैसी सौंदर्यपूर्ण भावना को भी टंटा बना देती है। वृहस्पति, तारा और चन्द्रमा का टंटा यहीं नहीं सुलटता। तारा की कोख से पुत्र का जन्म होते ही चन्द्रमा अपना पुत्र मांगने गुरू के पास आ जाता है। इस तरह गुरू वृहस्पति एक बार फिर मुश्किल में फंस जाते हैं। वृहस्पति कहते हैं- ‘ऐ बेटी के बाप चांद तू मुझे क्यों परेशान करने पर तुला है। तू जन्म का कंवारा बैठा है। तेरी शादी ही नहीं हुई तो पुत्र कहां से आ जाएगा ?’

तू जनम कंवारो धर्‌यौ बता तेरै छौरा खां सूं आवै
अरे ऐऽऽऽऽ बेटी का बाप चांद तू मोकू क्यों उकतावै।

फिर पंचायत। फिर वाद-विवाद। फिर स्त्री के बयान। स्त्री की आंतरिक शक्ति से ही संभव हुई इस स्वीकारोक्ति का विश्लेषण भी किए जाने लायक एक काम है कि वह कहती है- ‘मेरी कोख से जन्मे इस शिशु का पिता चन्द्रमा है।’
शिशु का नाम बुध रखा गया था। कहते हैं-

चंदा कू दियौ बुध, गुरू कूं दई तारा राणी 
कियो दूध को दूध पंच नै पाणी को पाणी।

धवले के अनुसार तो पंचों ने नीर-क्षीर फैसला किया। आपके अनुसार?
लोकगायक धवले ने पौराणिक कथा को पद में इस तरह से पुनर्सृजित किया है कि वह सदियों पुराने जीवन की कथा या कोरी काल्पनिक कथा न लगकर हमारे आज के जीवन की कथा लगती है। और हमारे मानसिक जगत की संरचना के साथ इस तरह की छेड़छाड़ करती है कि हम स्त्री-पुरूष सम्बन्ध की इस जटिल बहस पर पुनर्विचार करने को विवश होते हैं। लोक साहित्य लोक में इसी तरह विमर्शों के लिए जमीन तैयार करने का काम करता है।

आज भी हमारे ग्रामीण जीवन का यथार्थ सामंतवाद ही है। सारी चीजें ताकत और सामंती दृष्टि से ही तय होती है। और एक लोकगीत उस यथार्थ को हमारे सामने खोलकर रख देता है तो यही उसकी सार्थकता है। कुछ अधपढ़े अफसर और आवारा पूंजी किस्म के लोग जिन्होंने सत्ता बल से समाज में रसूख पाया हुआ है समाज को ऐसी दिशा देने में लगे हैं कि समाज में लोकगीतों का प्रचलन पिछड़ेपन की निशानी है। यह सही नजरिया नहीं है। असल में लोकगीत हमारी सांस्कृतिक विरासत का अंग है। हमें इस धरोहर को संचित करके संग्रहालय की वस्तु नहीं बनाना है बल्कि जीवन का हिस्सा बनाना है। ताकि हमारे दौर में बची-कुछी मानवीय चीजों पर हो रहे चौतरफा हमले से इन्हें बचाया जा सके।

Sunday, March 9, 2014

परोपकार


बहुत समय पहले की बात है एक विख्यात ऋषि गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे . उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के लड़के भी पढ़ा करते थे।
वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और सभी बड़े उत्साह के साथ अपने अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे थे कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में पड़ी ,
” आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं। “
आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।
ऋषिवर बोले , “ प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है . मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में हिस्सा लें .
यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी गुजरना पड़ेगा .”
तो क्या आप सब तैयार हैं ?”
” हाँ , हम तैयार हैं ”, शिष्य एक स्वर में बोले .
दौड़ शुरू हुई .
सभी तेजी से भागने लगे . वे तमाम बाधाओं को पार करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे . वहाँ बहुत अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर भी पड़े थे जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का अनुभव होता था .
सभी असमंजस में पड़ गए , जहाँ अभी तक दौड़ में सभी एक सामान बर्ताव कर रहे थे वहीँ अब सभी अलग -अलग व्यवहार करने लगे ; खैर , सभी ने ऐसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हुए।
“पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया , भला ऐसा क्यों ?”, ऋषिवर ने प्रश्न किया।
यह सुनकर एक शिष्य बोला , “ गुरु जी , हम सभी लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में पहुचते ही स्थिति बदल गयी …कोई दुसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था …और कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे ताकि बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े…. इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की .”
“ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं वे आगे आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ “, ऋषिवर ने आदेश दिया .
आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और पत्थर निकालने लगे . पर ये क्या जिन्हे वे पत्थर समझ रहे थे दरअसल वे बहुमूल्य हीरे थे . सभी आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने लगे .
“ मैं जानता हूँ आप लोग इन हीरों के देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं .” ऋषिवर बोले।
“ दरअसल इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था , और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों शिष्यों को मेरा इनाम है।
पुत्रों यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती है, जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा है . पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और उनका भला करने से नहीं चूकता है .


Friday, February 28, 2014

ताला-कुंजी


आदिवासी हाट-बाजार की परंपरा आदिवासियों ने नहीं शुरू की. इसे शुरु किया गैर-आदिवासी समाज ने. जहां उनका ध्येय सिर्फ बेचना और खरीदना होता था. आदिवासियों ने अपनी प्रकृति के अनुसार उसे नाचने-गाने, मिलने-जुलने, सूचना लेने-देने की जगह बना ली. खरीदने-बेचने की प्रक्रिया में शामिल तो धीरे-धीरे हो ही गए. 

खैर, किसी एक हाट-बाजार में एक आदिवासी एक बेचने वाले की वस्तु देखने लगा. वह वस्तु लोहे की थी और बेचने वाला उसे ताला-कुंजी कह रहा था. बहुत देर तक ताला-कुंजी को उलटने-पुलटने के बाद आदिवासी को समझ नहीं आया कि यह वस्तु है क्या और इसका उपयोग क्या है. तब दूकानदार ने समझाया, ‘कीमती वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए इसका इस्तेमाल होता है.’ आदिवासी ने पूछा, ‘कैसे?’ दूकानदार ने बताया, ‘देखो, जब तुम घर में कोई कीमती चीज रखते हो तो उसे यह ताला लगा कर उसे सुरक्षित रख सकते हो. या फिर घर से सपरिवार जाते समय दरवाजे पर इसे लगा कर चोरों से बच सकते हो. ताला-कुंजी तुम्हारी कीमती चीजों की रक्षा करेगा.’ 
आदिवासी ने सहज सवाल किया, ‘कीमती चीजों को सुरक्षित रखने वाली यह चीज तो तब और कीमती हुई?’
दूकानदार बोला, ‘हां.’
आदिवासी मुस्कराया, ‘तो इतनी कीमती चीज को घर के बाहर टांग कर कोई क्यों मुसीबत लेगा? सबके जाने के बाद इसकी रखवाली कौन करेगा?’
दूकानदार अवाक् रह गया. आदिवासी चलता बना.



आदिवासी जगत




"तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे क्योंकि, हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है"
ये पंक्तिया उन्होने किसी भी संदर्भ में लिखी हों, आदिवासी परिप्रेक्ष्य में अर्थस्पष्ट है, फिर भी अपने-अपने हिसाब से इन पंक्तियों को समझा जा सकता है। निष्कर्ष यही निकलेगा कि जिस इतिहास (व्यापक अर्थ में) के विरोध में आदिवासी युग-युगों से लड़ते रहे, उसमें उन्हें जगह कैसे मिलेगी। पौराणिक मिथकों का कुछ अंष रामायण में और अधिकांष महाभारत के माध्यम से पहले ही प्रस्तुत हो चुका था। रामायण के प्रमुख पात्र राम हैं, जिन्हे पुरूषोत्तम के रूप में अब तक संपूर्ण समाज पर स्थापित किया जाता रहा। अगर राम के जीवन में से वनवास के चैदह वर्ष निकाल दिए जायें तो उनके व्यक्तित्व में क्या बचेगा ? उन महत्वपूर्ण चैदह वर्षो में राम आदिवासियों के साथ रहे और उन्ही की ताकत से अनार्याें (आदिवासियों के विषेष संदर्भ में) से युद्वोपरांत विजयी होते हैं। इस सबके बावजूद राम की व्यवस्था में आदिवासी नायकों की भागीदारी, हस्तक्षेप एवं दर्जा क्या रहा ? भद्रजन के लिए यह बड़ा ही असुविधाजनक प्रष्न होगा। निर्दोष शंबूक के वध के बावजूद राम महान रहेंगे ! कितना रोचक होगा अगर हम ’’गुजरात के गोधराकाण्ड-न्यूटन का सिद्वांत-प्रायोजित नरसंहार’’ के समीकरण की ही तरह ’’सूर्पणखा-सीता अपहरण-लंका काण्ड पर न्यूटन के सिद्वांत को लागू करके देखें। राम-रावण युद्ध में दोनों ही तरफ से मरने वाले आदिवासी-अनार्य और युद्व किसके लिए ? इससे भी आगे-आपके लिए जो मानव समुदाय शत्रुपक्ष था उसे मनुष्य न मानकर राक्षस, असुर, दैत्य दानव न जाने किस- किस तरह विरूपित किया गया और जिन्होनें आपका साथ दिया उन्हें गिद्ध, रीछ वानर आदि की संज्ञा देकर जंगली जानवरों की श्रेणी में रख दिया, ताकि भविष्य तक में कभी उनकी असली पहचान न हो सके ??
महाभारत में चिरपरिचित एकलव्य का प्रसंग आता है। आर्यगुरू ने धनुर्विधा सिखाने से मना कर दिया। निषादराजपूत्र से फिर भी उसको गुरू मनवा दिया और अपने बलबूते पर धनुर्धर बन जाने पर भी बतौर दक्षिणा अंगुठा काट कर दिलवा दिया। कान पक गये यह कथा सुनते-सुनते मेरे गले यह कथा इस रूप में कतई नहीं उतरती। तर्क सम्मत यह लगता है कि एकलव्य का अगुंठा जबरन काटा होगा। इस जघन्य अपराध को ढकने के लिए तथा कथित दक्षिणा का स्वांग रचकर थोप दिया गया। आदिवासी स्त्री हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का प्रसंग आता है। अर्जुन को बचाने के लिए शहीद कर दिया जाता है।
घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का महत्वपूर्ण प्रसंग महाभारत में है। वह किषोरावस्था में ही था, मगर अत्यन्त बलवान। दुर्योधन कहीं से ढूंढ कर उसे अपने पक्ष में लड़ने के लिए बुला लेता है। वहीं कौरवों की तरफ से लड़ता है। ध्यान देने की बात है कि महाभारत युद्व में अधिकांष आदिवासी कौरवों के पक्ष में लड़े थे। एकलव्य स्वयं इसका उदाहरण है। उसका अगुंठा अगर द्रोणाचार्य मांगता तो शायद वह उसकी सेना के पक्ष में न लड़ता। अगूंठा काटने वाले पांडव थे, इसलिए वह पांडवों के विरूद्व लड़ा था। हो, तो बर्बरीक की कथा यूं चलती है कि जैसे ही वह युद्धभूमि में आया तो, कृष्ण समझ गये कि अब पांडवों का बचना मुष्किल है। क्या किया जावें ? भोले किषोर बर्बरीक को सोलह कला प्रवीण भगवान छलने के लिए चल देते हैं। कहते है-’’कलियुग में तेरी पूजा का इंतजाम किये देता हूँ। इस वक्त बैंकंुठ (या स्वर्ग) धाम में भेजने की गारन्टी भी लेता हूँ। बस एक काम कर दे, लडे मत और तेरी शीष मुझे सौंप दे।’’ ’’जवाब मिलता है, ’’आप तो भगवान है, जो करेगे ठीक ही होगा। मेरी इतनी सी इच्छा है कि दोनो ओर से बडे-बडे धुरंधर लड़ रहे है। मैं इनकी बहादुरी देखना चाहता हँू।’’ शर्त मान ली जाती है। बर्बरीक शीष सौंप देता है। एक मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के मैदान के निकट लम्बे बांस पर बर्बरीक का शीष टांँक दिया जाता है, जहंँा से उसने सारा युद्व देखा। दूसरे मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के निकट सबसे उँची पहाड़ी चोटी पर शीष रख दिया जाता है। यह पहाड़ सीकर (राजस्थान) के निकट हर्ष पर्वत है जिसकी ऊँचाई 3300 फीट है। माउन्ट आबू के गुरू षिखर (करीब 6000 फीट) के बाद राजस्थान-हरियाणा-निकटवर्ती-उत्तरप्रदेष-पंजाब के अंचल में यही सब से ऊँचा पहाड़ हैं। हर्षपर्वत और रींगस के बीच खाटू श्याम जी का धर्मस्थल है, जिसमें केवल शीष वाली प्रतिमा है, जिसकी पूजा होती है। इसे ’’ष्याम बाबा’’ कहते है। शीष मूर्ति से लगता है यह बर्बरीक ही होगा। हर्ष के पर्वत सीकर से ही उसने महाभारत युद्व देखा। इस प्रसंग को यहीं रोकते है और यह कहते है कि खाटू श्याम जी की मूर्ति तो बर्बरीक की है लेकिन मान्यता यह चली आ रही है कि यह श्री कृष्ण का बाल रूप है और उसी की पूजा होती है। सालाना लक्खी मेला यहंा लगता है। विड़म्बना यह है कि शीष काटकर देने के बाद भी आदिवासी बर्बरीक की जगह कृष्ण को पूजा गया।
एक और प्रसंग महाभारत में। अष्वमेघी यज्ञ के घोडे की यात्रा के दौरान अर्जुन की लड़ाई बभू्र वाहन से होती है। यह स्थान पूर्वांचल है। बभ्रूवाहनं मणीपुर के आदिवासी राजा चित्रवाहन की राजकुमारी चित्रांगदा का पुत्र था। उल्लेखनीय है अर्जुन ने चित्रांगधा और नाग कन्या उलूपी (दोनों आदिवासी) से विवाह (?) किया था। लड़ाई में अर्जुन मारा जाता हंै (बेहोष हुआ होगा) और उलूपी जड़ी-बूटियों से उसे जीवित (?) करती है। प्रष्न यह है कि अर्जुन धूल चटा देने वाला शुरवीर बभ्रूवाहन महान नहीं माना जाकर अतुलनीय योद्वा अर्जुन को ही बताया जाता है। एक और प्रसंग। कृष्ण का वध जारा शबर नामक आदिवासी के हाथों होता है। मैंने वध स्थल (गुजरात) की यात्रा की है। घटना स्थल की परख की । किसी भी कोंण से देखैं, यह सम्भव ही नहीं कि हरिण की आंँख समझ कर पगतल में चमकते पदम चिन्ह पर निषाना साधा हो। अगर आखेट था तो शबर का बाण जहरीला नहीं हो सकता और बाण जहरीला नहीं था, तो पैर में बाण लगने से कम से कम तत्काल तो मृत्यु नहीं हो सकती। इसके लिए पूरे शरीर का ’’सेप्टिक’’ होना जरूरी होगा। वह भी तब, जब कि कोई उपचार न किया जाये। आप कहते रहिए अगल जन्म में बाली के हाथों मरने वाला वरदान राम ने दिया था। और जारा शबर ही त्रेतायुग का बाली था। सारे सन्दर्भ देखने पडंेगे। खाण्डव वन दहन में आदिवासी नाग जाति को भस्म करने में कृष्ण एवं अर्जुन द्वारा अग्नि का सहयोग करने से लेकर कंस-षिषुपाल-जयद्रथ वध, एकलव्य का ’’अगुंठा’’, घटोत्कच-बर्बरीक-बभ्रूवाहन प्रसंग तक। यही नहीं, जाना होगा सतयुग और त्रेतायुग में भी। आप भीलों की मौखिक और गेय परम्परा का महाभारत (’’भीलों का भारथ’’ द्वारा श्री भगवानदास पटेल) पढ जाइये। पात्र एवं घटनास्थल करीब-करीब वही है लेकिन संदर्भ बदले हुए पायेंगे। वहंा अर्जुन की जगह नागवंषी आदिवासी राजा वासुकी अतुलनीय यौद्वा और बलवान मिलेगा।
श्री पटेल भीलों की रामायण भी लिख रहे हैं। उनका यह अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है आदिवासियों की दृष्टि से भारतीय मिथकों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में। पूरा का पूरा तथा कथित सतयुग भरा पड़ा है मिथकों से और मिथकों में आदिवासियों के विकृतिकरण से। इंद्र का सन्दर्भ ले लिजिए। छल-छद्म, अययास, व्यभिचार, यहाँ तक की बलात्कार (कानूनी परिभाषा और अहल्या प्रसंग) क्या-क्या कुकर्म उसने नहीं किए, और मनुष्य में श्रेष्ठ देवता और देवताओं के स्वामी (श्रेष्ठम) इन्द्र की पूजा आप करते रहिए। नारद, तुम्बरू जैसे पात्र अनार्य-आदिवासी थे। नारद के चरित्र को समझिए इन्द्र की व्यवस्था के विरोध में हर जगह व्यंग करता है। उसके कथनों की मूल भावना और उद्देष्यों को समझने के लिए दिमाग पर अधिक जोर देने की आवष्यकता ही नहीं पड़ेगी।
 क्या हैं ये ’’महान’’ चंद्रवंषी और सूर्यवंषी श्रत्रिय ? उन्हीं के समर्थन में लिये गये षास्त्रों से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पुरूरवा की अप्सरा (वेष्या) पत्नी उर्वषी की औलाद की पीढ़ियां चंद्रवंषी और अप्सरा (वेष्या) मेनका पुत्री ष्षंकुतला की औलाद की पीढ़िया सूर्यवंषी हुए। यह पूछना बड़ा ही असुविधाजनक होगा कि ‘‘तुम्हारी (दोनों वंषों की) आद्यजननी तो थीं, फिर तुम महान कुल परंपरा कैसे हुए ?’’ दूसरी तरफ यह सवाल उठता है कि प्राचीन काल में अपनी पुष्तैनी धरती पर ष्षांति से जीवन जी रहे आदिम समुदायों पर आपने बाहर से आकर हमले किए, उन्हें मारा, दास बनाया, भगाया और फिर असुर, राक्षस, जंगली जानवरों की संज्ञा दी। फिर तुम श्रेष्ठ कैसे हुए ?
आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘‘मिथकों में आदिवासी’’ के सारे संदर्भो को पुनव्र्याख्याथित करना होगा। आस्था और भावना अपनी जगह है मगर अतीत का निरूपण तो तथ्यात्मक, तार्किक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ही होगा। अब बात आती है इतिहास में आदिवासियों की। इससे पहले यह देखा जाये कि इतिहास मंे आम आदमी किस हद तक होता है ? इतिहास के नाम पर हजारों वर्षों तक राजा - महाराजाओं का इतिहास ही लिखा जाता रहा। प्राचीन काल से मुगल काल तक भाट - चारणी - दरबारी इतिहासकारों की परंपरा हावी रही। इसमें प्राचीन सम्राटों , तथाकथित गणराज्यों के शासकों , मुस्लिम बादषाहों , रियासती सामंतों के पक्ष में इतिहास लिखा व लिखवाया जाता रहा। 



 आदिवासी जगत
(पुस्तक के आभार से.)



Tuesday, February 25, 2014

आदिवासी जगत



आदिवासी जाति नही जमात है, मुख्यधारा में लाने की बात सही नहीं क्योंकि मुख्यधारा में भी दोष है। क्या मुख्यधारा में आने पर उनकी संस्कृति और मूल्य बचे रह सकेंगे? आज उनकी धार्मिक, संस्कृति पर आक्रमण हो रहे हैं।
नेहरू ने कहा है ‘‘आदिवासियों में मुझे कई ऐसे गुण दिखाई दिये जो भारत के मैदानी इलाकों, शहरों और अन्य भागों में रहने वालों में नहीं हैं। इन्हीं गुणों के कारण मैं आकृष्ट हुआ। आदिवासियों के प्रति हमारा रवैया आदानशील होना चाहिए। इन लोगों में बहुत अनुशासन है और वे भारत में अधिकांश लोगों की तुलना में कहीं अधिक लोकतांत्रिक हैं।‘‘ आदिवासी जन में ऐसे मूल्य कहां से विकसित हुुए ? इस प्रश्न का उत्तर फ्रेेडरिक एंगेल्स ने बहुत पहले यह कह कर दिया था कि ‘‘आदिवासी समाज का वैभव और बंधन इसी बात में था कि उसमें कोई शासक और शासित नहीं था।‘‘ डाॅ0 डी0 पी0 चट्टोपाध्याय ने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लोकायत‘ में स्पष्ट किया है कि ‘‘....गण, प्रांत, संघ, पुग, श्रेणी ये सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय थे। मानव समाज व्यवस्था के संदर्भ में इनसे जिस सामूहिकता का संकेत मिलता है उसका सीधा सा अर्थ था आदिवासी सामूहिकता।‘‘ समानता एवं सामूहिकता के जिन गुणों पर पं नेहरू, एंगेल्स, एवं चट्टोपाध्याय ने जोर दिया, उसी क्रम में श्रम की महत्ता आदिवासी संस्कृति का एक स्तम्भ रहा है। ‘भद्र समाज के पास ये गुण नहीं थे और अपनी श्रेष्ठता स्थापित करनी थी, इसलिए शारीरिक श्रम की तुलना बुद्धि वैभव से की गई और उसी काल खण्ड (वह आर्य विजेताओं का अनार्य-जन पर सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का समय था।) में जिस श्रम प्रक्रिया का समायोजन मानव मस्तिष्क ने किया था, उसी को वह दूसरों से करवाना चाहता था और स्वयं उस श्रम से बचना चाहता था।





Tuesday, February 4, 2014

Forener Wife

जब यूनानी आक्रमणकारी सेल्यूकस चन्द्रगुप्त मौर्य से हार गया और उसकी सेना बंदी बना ली गयी तब उसने अपनी खूबसूरत बेटी हेलेना के विवाह का प्रस्ताव चन्द्रगुप्त के पास भेजा | सेल्यूकस की सबसे छोटी बेटी हेलेन बेहद खुबसूरत थी , उसका विवाह आचार्य चाणक्य ने प्रस्ताव मिलने पर सम्राट चन्द्रगुप्त से कराया|  पर उन्होंने विवाह से पहले हेलेन और चन्द्रगुप्त से कुछ शर्ते रखी ; जिस बाद ही उन दोनों का विवाह हुआ |
पहली शर्त यह थी की उन दोनों से उत्पन्न संतान उनके राज्य का उत्तराधिकारी नहीं होगा | और इसका कारण बताया की हेलेन एक विदेशी महिला है , और भारत के पूर्वजों से उसका कोई नाता नहीं है , भारतीय संस्कृति से हेलेन पूर्णतः अनभिग्य है और दूसरा कारण बताया की हेलेन विदेशी शत्रुओं की बेटी है | उसकी निष्ठा कभी भारत के साथ नहीं हो सकती | तीसरा कारण बताया की हेलेन का बेटा विदेशी माँ का पुत्र होने के नाते उसके प्रभाव से कभी मुक्त नहीं हो पायेगा और भारतीय माटी, भारतीय लोगो के प्रति पूर्ण निष्ठावान नहीं हो पायेगा | एक और शर्त चाणक्य ने हेलेन के सामने रखी की वह कभी भी चन्द्रगुप्त के राज्य कार्य में हस्तक्शेप नहीं करेगी और राजनीति और प्रशासनिक अधिकार से पूर्णतया विरत रहेगी ; परंतु गृहस्थ जीवन में हेलेन का पूर्ण अधिकार होगा |
सोचिये मित्रो  | भारत ही नही विश्व भर में चाणक्य जैसा कुटनीतिक और नीतिकार राजनितिक आज तक दूसरा कोई नही पैदा हुआ |
फिर भी आज भारत उनकी सबक को भूल गया और देश पर शासन कौन कर रहा है? सब आपके सामने है |

Sunday, February 2, 2014

Adjust



कब तक "एडजस्ट" करेंगे आप ??

एक मेढक को खौलते हुए पानी में डाला गया, मेढक कूद कर निकल गया। कूदना मेढक का स्वभाव है, वो कूद सकता है, जहां अपनी जान पर बनी हो वहाँ तो और भी तेज़ी से कूदेगा। अब उसी मेढक को एक साधारण पानी में डाला गया और पानी का तापमान धीरे धीरे एक एक डिग्री बढाया गया, मेढक ने "एडजस्ट " कर लिया पानी का तापमान। सोचा अभी कूदने की जरूरत नहीं है। फिर एक डिग्री बढा और फिर मेढक ने एडजस्ट कर लिया। उसके बाद फिर एक डिग्री बढा पुन: एडजस्ट कर किया लिया कूदना भूल गया और धीरे धीरे मेढक अपने स्वभाव को ही भूल गया क्योकि अब वो हर तापमान और हर परिस्थति मे खुद को एडजस्ट करना जो सीख गया है। अन्तोगत्वा पानी का तापमान धीरे धीरे इतना बढ़ गया कि पानी खौलने लग गया और मेढक एडजस्ट ही करता रहा और नहीं कूद पाया वंही मर गया। ये कहानी नहीं है ये मेढक कोई नहीं ये हम और आप है। जो एडजस्ट कर रहें है,इस कांग्रेस सरकार के हर अत्याचार को सहन कर रहे है, और अपने आप को एडजस्ट कर रहे है, पेट्रोल की कीमत बढाती बढती है तो हम पूल कार अथवा पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करके अपने आप को एडजस्ट करते है, क़ीमतें आसमान छू रही है। हम दुसरे ढंग से इसमें भी एडजस्ट करते है। जो हमें मिलनी चाहिए वो हमारे आँख के सामने ही किसी और को दे दी जाती है सिर्फ वोट बैंक के खातिर। इसमें भी हम अपने आप को एडजस्ट करते है, कि शायद अगला मौका हमें मिले। हम भूल चुके है कि इस कांग्रेस सरकार ने एक एक डिग्री तापमान बढ़ा करके हमारा स्वाभाव ही बदल दिया है और हम आज के दिन में सिर्फ एक चीज जानते है एडजस्ट करना, और वो करते रहेंगे मरते दम तक। मेरे भाइयो और बहनों आज के पानी तापमान अब हमारे लिए ठीक है। कांग्रेस सरकार ने "एडजस्ट" करने को हमारी नियति बना चुकी है। आईये हम सब मिलकर इसे बदल दे और इस सरकार को उखाड़ फेकें।