"तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे क्योंकि, हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है"
ये पंक्तिया उन्होने किसी भी संदर्भ में लिखी हों, आदिवासी परिप्रेक्ष्य में अर्थस्पष्ट है, फिर भी अपने-अपने हिसाब से इन पंक्तियों को समझा जा सकता है। निष्कर्ष यही निकलेगा कि जिस इतिहास (व्यापक अर्थ में) के विरोध में आदिवासी युग-युगों से लड़ते रहे, उसमें उन्हें जगह कैसे मिलेगी। पौराणिक मिथकों का कुछ अंष रामायण में और अधिकांष महाभारत के माध्यम से पहले ही प्रस्तुत हो चुका था। रामायण के प्रमुख पात्र राम हैं, जिन्हे पुरूषोत्तम के रूप में अब तक संपूर्ण समाज पर स्थापित किया जाता रहा। अगर राम के जीवन में से वनवास के चैदह वर्ष निकाल दिए जायें तो उनके व्यक्तित्व में क्या बचेगा ? उन महत्वपूर्ण चैदह वर्षो में राम आदिवासियों के साथ रहे और उन्ही की ताकत से अनार्याें (आदिवासियों के विषेष संदर्भ में) से युद्वोपरांत विजयी होते हैं। इस सबके बावजूद राम की व्यवस्था में आदिवासी नायकों की भागीदारी, हस्तक्षेप एवं दर्जा क्या रहा ? भद्रजन के लिए यह बड़ा ही असुविधाजनक प्रष्न होगा। निर्दोष शंबूक के वध के बावजूद राम महान रहेंगे ! कितना रोचक होगा अगर हम ’’गुजरात के गोधराकाण्ड-न्यूटन का सिद्वांत-प्रायोजित नरसंहार’’ के समीकरण की ही तरह ’’सूर्पणखा-सीता अपहरण-लंका काण्ड पर न्यूटन के सिद्वांत को लागू करके देखें। राम-रावण युद्ध में दोनों ही तरफ से मरने वाले आदिवासी-अनार्य और युद्व किसके लिए ? इससे भी आगे-आपके लिए जो मानव समुदाय शत्रुपक्ष था उसे मनुष्य न मानकर राक्षस, असुर, दैत्य दानव न जाने किस- किस तरह विरूपित किया गया और जिन्होनें आपका साथ दिया उन्हें गिद्ध, रीछ वानर आदि की संज्ञा देकर जंगली जानवरों की श्रेणी में रख दिया, ताकि भविष्य तक में कभी उनकी असली पहचान न हो सके ??
महाभारत में चिरपरिचित एकलव्य का प्रसंग आता है। आर्यगुरू ने धनुर्विधा सिखाने से मना कर दिया। निषादराजपूत्र से फिर भी उसको गुरू मनवा दिया और अपने बलबूते पर धनुर्धर बन जाने पर भी बतौर दक्षिणा अंगुठा काट कर दिलवा दिया। कान पक गये यह कथा सुनते-सुनते मेरे गले यह कथा इस रूप में कतई नहीं उतरती। तर्क सम्मत यह लगता है कि एकलव्य का अगुंठा जबरन काटा होगा। इस जघन्य अपराध को ढकने के लिए तथा कथित दक्षिणा का स्वांग रचकर थोप दिया गया। आदिवासी स्त्री हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का प्रसंग आता है। अर्जुन को बचाने के लिए शहीद कर दिया जाता है।
घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का महत्वपूर्ण प्रसंग महाभारत में है। वह किषोरावस्था में ही था, मगर अत्यन्त बलवान। दुर्योधन कहीं से ढूंढ कर उसे अपने पक्ष में लड़ने के लिए बुला लेता है। वहीं कौरवों की तरफ से लड़ता है। ध्यान देने की बात है कि महाभारत युद्व में अधिकांष आदिवासी कौरवों के पक्ष में लड़े थे। एकलव्य स्वयं इसका उदाहरण है। उसका अगुंठा अगर द्रोणाचार्य मांगता तो शायद वह उसकी सेना के पक्ष में न लड़ता। अगूंठा काटने वाले पांडव थे, इसलिए वह पांडवों के विरूद्व लड़ा था। हो, तो बर्बरीक की कथा यूं चलती है कि जैसे ही वह युद्धभूमि में आया तो, कृष्ण समझ गये कि अब पांडवों का बचना मुष्किल है। क्या किया जावें ? भोले किषोर बर्बरीक को सोलह कला प्रवीण भगवान छलने के लिए चल देते हैं। कहते है-’’कलियुग में तेरी पूजा का इंतजाम किये देता हूँ। इस वक्त बैंकंुठ (या स्वर्ग) धाम में भेजने की गारन्टी भी लेता हूँ। बस एक काम कर दे, लडे मत और तेरी शीष मुझे सौंप दे।’’ ’’जवाब मिलता है, ’’आप तो भगवान है, जो करेगे ठीक ही होगा। मेरी इतनी सी इच्छा है कि दोनो ओर से बडे-बडे धुरंधर लड़ रहे है। मैं इनकी बहादुरी देखना चाहता हँू।’’ शर्त मान ली जाती है। बर्बरीक शीष सौंप देता है। एक मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के मैदान के निकट लम्बे बांस पर बर्बरीक का शीष टांँक दिया जाता है, जहंँा से उसने सारा युद्व देखा। दूसरे मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के निकट सबसे उँची पहाड़ी चोटी पर शीष रख दिया जाता है। यह पहाड़ सीकर (राजस्थान) के निकट हर्ष पर्वत है जिसकी ऊँचाई 3300 फीट है। माउन्ट आबू के गुरू षिखर (करीब 6000 फीट) के बाद राजस्थान-हरियाणा-निकटवर्ती-उत्तरप्रदेष-पंजाब के अंचल में यही सब से ऊँचा पहाड़ हैं। हर्षपर्वत और रींगस के बीच खाटू श्याम जी का धर्मस्थल है, जिसमें केवल शीष वाली प्रतिमा है, जिसकी पूजा होती है। इसे ’’ष्याम बाबा’’ कहते है। शीष मूर्ति से लगता है यह बर्बरीक ही होगा। हर्ष के पर्वत सीकर से ही उसने महाभारत युद्व देखा। इस प्रसंग को यहीं रोकते है और यह कहते है कि खाटू श्याम जी की मूर्ति तो बर्बरीक की है लेकिन मान्यता यह चली आ रही है कि यह श्री कृष्ण का बाल रूप है और उसी की पूजा होती है। सालाना लक्खी मेला यहंा लगता है। विड़म्बना यह है कि शीष काटकर देने के बाद भी आदिवासी बर्बरीक की जगह कृष्ण को पूजा गया।
एक और प्रसंग महाभारत में। अष्वमेघी यज्ञ के घोडे की यात्रा के दौरान अर्जुन की लड़ाई बभू्र वाहन से होती है। यह स्थान पूर्वांचल है। बभ्रूवाहनं मणीपुर के आदिवासी राजा चित्रवाहन की राजकुमारी चित्रांगदा का पुत्र था। उल्लेखनीय है अर्जुन ने चित्रांगधा और नाग कन्या उलूपी (दोनों आदिवासी) से विवाह (?) किया था। लड़ाई में अर्जुन मारा जाता हंै (बेहोष हुआ होगा) और उलूपी जड़ी-बूटियों से उसे जीवित (?) करती है। प्रष्न यह है कि अर्जुन धूल चटा देने वाला शुरवीर बभ्रूवाहन महान नहीं माना जाकर अतुलनीय योद्वा अर्जुन को ही बताया जाता है। एक और प्रसंग। कृष्ण का वध जारा शबर नामक आदिवासी के हाथों होता है। मैंने वध स्थल (गुजरात) की यात्रा की है। घटना स्थल की परख की । किसी भी कोंण से देखैं, यह सम्भव ही नहीं कि हरिण की आंँख समझ कर पगतल में चमकते पदम चिन्ह पर निषाना साधा हो। अगर आखेट था तो शबर का बाण जहरीला नहीं हो सकता और बाण जहरीला नहीं था, तो पैर में बाण लगने से कम से कम तत्काल तो मृत्यु नहीं हो सकती। इसके लिए पूरे शरीर का ’’सेप्टिक’’ होना जरूरी होगा। वह भी तब, जब कि कोई उपचार न किया जाये। आप कहते रहिए अगल जन्म में बाली के हाथों मरने वाला वरदान राम ने दिया था। और जारा शबर ही त्रेतायुग का बाली था। सारे सन्दर्भ देखने पडंेगे। खाण्डव वन दहन में आदिवासी नाग जाति को भस्म करने में कृष्ण एवं अर्जुन द्वारा अग्नि का सहयोग करने से लेकर कंस-षिषुपाल-जयद्रथ वध, एकलव्य का ’’अगुंठा’’, घटोत्कच-बर्बरीक-बभ्रूवाहन प्रसंग तक। यही नहीं, जाना होगा सतयुग और त्रेतायुग में भी। आप भीलों की मौखिक और गेय परम्परा का महाभारत (’’भीलों का भारथ’’ द्वारा श्री भगवानदास पटेल) पढ जाइये। पात्र एवं घटनास्थल करीब-करीब वही है लेकिन संदर्भ बदले हुए पायेंगे। वहंा अर्जुन की जगह नागवंषी आदिवासी राजा वासुकी अतुलनीय यौद्वा और बलवान मिलेगा।
श्री पटेल भीलों की रामायण भी लिख रहे हैं। उनका यह अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है आदिवासियों की दृष्टि से भारतीय मिथकों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में। पूरा का पूरा तथा कथित सतयुग भरा पड़ा है मिथकों से और मिथकों में आदिवासियों के विकृतिकरण से। इंद्र का सन्दर्भ ले लिजिए। छल-छद्म, अययास, व्यभिचार, यहाँ तक की बलात्कार (कानूनी परिभाषा और अहल्या प्रसंग) क्या-क्या कुकर्म उसने नहीं किए, और मनुष्य में श्रेष्ठ देवता और देवताओं के स्वामी (श्रेष्ठम) इन्द्र की पूजा आप करते रहिए। नारद, तुम्बरू जैसे पात्र अनार्य-आदिवासी थे। नारद के चरित्र को समझिए इन्द्र की व्यवस्था के विरोध में हर जगह व्यंग करता है। उसके कथनों की मूल भावना और उद्देष्यों को समझने के लिए दिमाग पर अधिक जोर देने की आवष्यकता ही नहीं पड़ेगी।
क्या हैं ये ’’महान’’ चंद्रवंषी और सूर्यवंषी श्रत्रिय ? उन्हीं के समर्थन में लिये गये षास्त्रों से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पुरूरवा की अप्सरा (वेष्या) पत्नी उर्वषी की औलाद की पीढ़ियां चंद्रवंषी और अप्सरा (वेष्या) मेनका पुत्री ष्षंकुतला की औलाद की पीढ़िया सूर्यवंषी हुए। यह पूछना बड़ा ही असुविधाजनक होगा कि ‘‘तुम्हारी (दोनों वंषों की) आद्यजननी तो थीं, फिर तुम महान कुल परंपरा कैसे हुए ?’’ दूसरी तरफ यह सवाल उठता है कि प्राचीन काल में अपनी पुष्तैनी धरती पर ष्षांति से जीवन जी रहे आदिम समुदायों पर आपने बाहर से आकर हमले किए, उन्हें मारा, दास बनाया, भगाया और फिर असुर, राक्षस, जंगली जानवरों की संज्ञा दी। फिर तुम श्रेष्ठ कैसे हुए ?
आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘‘मिथकों में आदिवासी’’ के सारे संदर्भो को पुनव्र्याख्याथित करना होगा। आस्था और भावना अपनी जगह है मगर अतीत का निरूपण तो तथ्यात्मक, तार्किक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ही होगा। अब बात आती है इतिहास में आदिवासियों की। इससे पहले यह देखा जाये कि इतिहास मंे आम आदमी किस हद तक होता है ? इतिहास के नाम पर हजारों वर्षों तक राजा - महाराजाओं का इतिहास ही लिखा जाता रहा। प्राचीन काल से मुगल काल तक भाट - चारणी - दरबारी इतिहासकारों की परंपरा हावी रही। इसमें प्राचीन सम्राटों , तथाकथित गणराज्यों के शासकों , मुस्लिम बादषाहों , रियासती सामंतों के पक्ष में इतिहास लिखा व लिखवाया जाता रहा।
आदिवासी जगत
(पुस्तक के आभार से.)