----- ( होली गीत)------
ये फागुन के महिने में रात्रि के समय कुंवारी लड़कियों द्वारा गाया जाने वाला लोकनृत्य गीत (धोड़या गीत) है । इसमें गीतों के साथ साथ नृत्य भी होता हैं। इसमें लड़कियां 10-15 की टोली बनाकर दो समूहों में विभक्त हो जाती हैं। एक समूह की लड़कियां गाती हुई दूसरे समूह की तरफ़ तेजी से दौड़ती हुई जाती है तथा यही पुनरावृति दूसरे समूह द्वारा दोहराई जाती है।इन गीतों का प्रतिपाद्य हंसी मजाक तथा साधारण से परिवर्तन के साथ दैनिक जीवन की घटनाओं पर आधारित होता है । इन गीतों को रात्रि के समय गाया जाता है । यहाँ कुछ स्फुट उद्धरण प्रस्तुत हैं -
होड़ी मंगड़े जब बूंद पड़े
सम्मत को घाटो नहीं मैया । होड़ी -----
आदिवासी समाज प्रकृति आधारित है अत: उसमें शकुन भी प्राकृतिक घटनाओं को ध्यान में रखकर समझे जाते हैं । मीणा अंचल में यह मान्यता है कि होली दहन के समय यदि बूंद पडती है तो उस वर्ष वर्षा का अभाव नही रहता ।
भाई रे मीणा गांगड़दी,
तैने बिन्या लगन होड़ी मंगड़ादी । भाई रे------
इस गीत में मनुवादी विचारधारा का तिरस्कार प्रतिफलित हुआ है । आदिवासियो के अपने नियम होते है उसी के आधार पर वे त्यौहार आदि को मनाते हैं।
नौ बीघा आरेड़,
बकरिया खा गई बूचा कानन की । नौ ---------
मीणा अंचल में पहले अरहड की खेती बहुत होती थी, अब इसमें कमी आई है । उसकी रखवाली की तरफ इस गीत में इशारा किया गया है ।
नौ मण जीरो नौ सै को,
मेरा जेठ बिन्या कुण बेचेगो । नौ -----------
जीरा भी पहले यहां की एक मुख्य फसल के रुप में किया जाता था जो सबसे मंहगा बिकता था । इस गीत में बताया गया है कि मंहगी वस्तु का बेचान जिम्मेदार व्यक्ति ही कर सकता है जो हिसाब किताब की समझ रखता हो । यहां घर मे जेठ को जिम्मेवार और घर का बडा होने के कारण यह अधिकार सिद्ध होता है ।
भाई रे छोरा पाखण्डी,
बाड़ा में खाय कुलामंडी । भाई --------
यह वाचाल किस्म के व्यक्ति की चारित्रिक गतिविधियो का अंकन ही इस गीत का प्रतिपाद्य रहा है ।
होड़ी आई होड़ी आई ढ़प ल्यादे
ई तो होगो पुराणों मैया और ल्यादे।
ग्राम्य अंचल में होली के उल्लास में ढप और चंग के साथ गायन की परिपाटी रही है ।
चणां कटै लम्बी पाटी में
भरल्या रै मोटर गाड़ी में ।
मीणा अंचल में पहले चने की फसल फरपूर मात्रा में होती थी । साथ ही इस गीत में कृषि मे आए मशीनीकरण के प्रयोग का भी पता चलता है ।
भाई रे छोरी मैणा की,
भरल्याई रे थाडी गहणा की ।
आभूषणों का शौक आदिवासी स्त्रियों में ज्यादा रहा है । चांदी और सोने के विभिन्न आभूषण शादी में भी दिये जाते हैं । अच्छी फसल होने पर आभूषण बनवाने के अनेक उदाहरण मीणा लोक गीतों मे मिलते है ।
बणियों करै हिसाब,
बरेणी दारी कूदी कूदी डोले गिराडा में।
बैसाख में फसल के पैदा होने पर किसान बनिये का हिसाब करता है साथ ही कुछ छूट करने की भी विनति करता है, परन्तु बनिया की स्त्री अपने कंजूस स्वभाव के चलते यह छूट प्रदान करने नहीं दे रही । इसी प्रवृत्ति को इस गीत में दर्शाया गया है ।
नया बैल की जौतन सू
मेरो गोज्यो भरगो लोटनसू ।
आदिवासी सदैव से कठोर परिश्रम से कृषि कार्य करता रहा है । खेत को जोतने के लिए 1980 से पहले हल-बैल ही प्रमुख साधन थे । नया बैल अधिक जुताई करता है जिससे ज्यादा जमीन जोती जा सके । इसके फलस्वरुप फसल में भी बढोतरी होती थी । इसी मनोदशा का वर्णन इस गीत की विषय वस्तु है ।
( साभार -- विजय सिंह मीणा जी की पुस्तक मीणा लोक साहित्य एवम संस्कृति से )
{एक टेंट में सेर में चणा सम्वत को धोखो नहीं मय्या..
रंडवो करे मजाक बरेणी दारी कूदी कूदी डोले गिराडा में...
होडी आइ होडी आई गुड ल्यादे, कंजी कू थोडी खड ल्यादे....
पलक्या पै पग जब दीज्यो, खंगवाडी मोय घडा दीज्यो....
दो भैसन का धीणा सू, मत भिडज्यो मोटा मीणा सू...
टोडा सु गूंजी ल्यावेगो, म्हारो बलम आज नही आवेगो ...
को जाऊ मैया कलवा कै, म्हारो जातेई हलवा कर देगो ...
को जाऊ मैया भैसन पै, म्हारी टुंडी देख पडो रडके...
सुण रै छोरा सासू का, घडवा दै .. घडवा दै कुडंल कानन का..
पीलू को मचौल्यों मेरी जीजी क् सू ल्याई ...होलै होलै रै बलम न तोराळ्यो..
ढांढयोण को पेड़ महारा बाड़ा में दिन्गा दिन्गा रै ननद का गौणा मे..
दौरानी पै तीन चुटीला , एक दुवा दै देवरिया ..
याको बाप करे चुगली, मत बैठे मोरया या टुगली...
हलवो खायो रंडवा को, मोय लोभ दे दियो खंडवा को.....
गिर्राजी की जय बोले, रंडवा की नीत किस्यां डोले....
रंडवा की छान पै बिलाई डोले , रन्द्वो जाणे लुगाई डोले..}
मीणा लोकगीतों की मूल परम्परा मौखिक है, इसीलिए शास्त्रीय दृष्टि से इनके शैल्पिक गठन का निश्चित प्रारुप नहीं बन पाया है । इसके बावजूद यह सर्वाधिक जीवंत और हरियाली विधा है, जिसमें हजारो वर्षों का हमारा सांस्कृतिक इतिहास सुरक्षित है । इन्हीं के कारण गतिशील परम्पराएं व संस्कार आज भी हमारा मार्गदर्शन करते हैं । सनातन संर्घष और जीवट-जिजिविषा का ऐतिहासिक बीजभूमि का यह उर्वर दर्शन अपने आप में लोक जीवन का इतिहास है । इन लोकगीतों की भाषा, भाषा-शास्त्रियों के लिए अथाह सागर है जिसे बार-बार मंथन प्रक्रिया से गुजरना है । इन गीतों का एक-एक शब्द अपने आप में बहुत गहरे और गूढ अर्थ समेटे हुए है । नवीन शब्द-गठन, नये प्रतीक और सीधे सहज सरल भावों का यह भव्यतम कुबेर कोष है ।