Thursday, March 13, 2014

पद

धवले अपनी मिठास भरी आवाज में हमारे मन के तारों में अनुगूंजें पैदा करते हुए गाते हैं-

कछु लाकड़ी चीकणी, कछु भोंटी करवाड़ी 
चंदा को इ नहींअ बजीअ दोनूं हाथन से ताड़ी।

विवाद की षुरूआत होती है यहाँ से। स्त्री-पुरूष सम्बन्ध में आए इस पेच से। इस तरह के पेचपूर्ण प्रकरण हमारे समय में घर-घर की कहानी नहीं भी हैं तो गांव-गांव की कहानी तो जरूर हैं। एक पौराणिक कथा के माध्यम से स्त्री-पुरूष सम्बन्घ की जटिलता को सामने लाना पद को एक सारगर्भित प्रासांगिकता देता है। रचना में एक तो प्रेम कहानी का वर्णन दूसरा इन प्रेम कहानियों पर हमारा समाज किस तरह प्रतिक्रिया करता है उसे प्रमुख कथा-वस्तु के रूप में प्रस्तुत करना इस पद की जनता में अपील को बढ़ा देता है। इस अपील के बढ़ने में गायक द्वारा कथा की महीन बुनावट का बहुत योगदान है। प्रेम प्रसंग के एक कदम चलने से पहले ही मामला पंच-फैसले के अधीन चला जाता है। पंचायत की उठा-पटक पर जाने से पहले यह जान लेना दिलचस्प होगा कि सिलसिला शुरू कैसे हुआ ? सिलसिला ऐसे शुरू हुआ कि तारा और चन्द्रमा के बीच कुछ-कुछ चल तो रहा ही था एक रोज चन्द्रमा विद्यार्जन के लिए गुरू के पास नहीं पहुंचता है। गुरू ने दो शिष्य भिजवाए-

घर पै पहुंच गए दो चेला
जातैई दियौ चांद कू हेला

अब चंदा बोल्यो नाय देख जा बैठ्यो छा जा पै 
गुरू बिसपत की तारा नार खड़ी पायी दरवाजा पै

अब आप बिम्ब देखिए कितना सुंदर है। चन्द्रमा घर के छज्जे पर चुपचाप बैठा दिखाई दिया। जैसा कि हम उसे जीवन में देखते हैं। घर के दरवाजे पर खड़ी दिखती है प्रेम कथा की नायिका तारा। तारा जब उन शिष्यों को इंकार में जवाब देती है तो चन्द्रमा की चुप्पी अर्थवान हो उठती है। कहने की जरूरत नहीं कि उस चुप्पी का निहितार्थ यह है कि चन्द्रमा न कहते हुए भी यह कह रहा कि ‘भाईयों मैं और तारा साथ रह रहे हैं तो यह मेरी अकेले की मर्जी नहीं है।’ तारा के दो टूक जवाब से बात और भी साफ हो जाती है-

मोकू गुरू गुड़ फीको लग्यौ स्वाद चेला काइ लपटा में 
मैं दुख-सुख लऊँगी काट बैठ चंदा का छज्जा पै

तारा का प्रेम कितना सरल और कितना सच्चा है कि वह वहाँ रहकर दुख-सुख काटने की बात करती है जहां बैठना चन्द्रमा को प्रिय है। छज्जे पर। यूँ वह यह कह ही देती है कि मुझे गुरू गुड़ फीका लगा है और चन्द्रमा का पानी का लपटा ही स्वादिष्ट लगा है। एक भागी हुई स्त्री की मूलभूत भावना का ऐसा नग्न चित्रण लोकगीत में ही संभव है। लोकगीतों की यही वह विशिष्टता है जो साहित्य की तमाम आधुनिक, उत्तर आधुनिक उपलब्धियों के बीच उनके स्थान को अक्षुण्ण बनाए रखती है।

जब शिष्य गुरू को जाकर सारी बात बताते हैं तो गुरू सबसे पहला काम जो करतें हैं वह है-चन्द्रमा को ‘रेस्टीकेट’ करने का काम। युवा छात्रों की विद्रोह-भावना को दबाने की शिक्षक की सबसे निरीह कार्यवाही-

कियो चेला नै खोटो काम 
मंगा रजिस्टर लियो काट दियो चन्दरमा को नाम।
अरे वा दुष्ट नै तनिक न कियो विवेक
और वाइ हांडी में खा गयो स कोई वाइ में कर गयो ठेक।

जिस थाली में खाना उसी में छेद करना-यह एक लोकोक्ति है। यह लोकोक्ति विद्रोह को दबाने के लिए रूढ़िग्रस्त समाज से सहयोग के लिए भावानात्मक अपील का काम करती है। और व्यापक समर्थन पाकर रहती है। गुरू वृहस्पति समाज का समर्थन प्राप्त करने के लिए तर्क देते हैं-

आज तो घरवाड़ी गई म्हारी, तड़कै जायंगी नार तुम्हारी
इस्यां तो जणा-जणा की जायंगी, घर-घर में नार उकतायंगी 
मुसकिल बोदा आसामी की, करौ पाबंदी बैरबाणी की
तड़कै मुल्जिम कू बुलवाल्यौ और पंचन पै न्याय करा ल्यौ
और जुवाड़वाद्यौ पंचात कराद्यौ चन्दरमा पै दण्ड
और करो जात सूं बाहर करौ वाकौ हुक्का पाणी बंद। 

वृहस्पति कह रहे हैं- ‘आज तो मेरी स्त्री गई है, कल को आपकी भी जा सकती हैं। और ऐसे छोटी-मोटी बातों से परेशान होकर हर किसी की स्त्री जाने लगी तो क्या होगा इस समाज-व्यवस्था का। इसलिए सबसे जरूरी है स्त्री के ऐसे दुस्साहस पर फौरन प्रतिबंध लगाना और इस अपराध में शरीक चन्द्रमा को जाति से बहिष्कृत करना। उससे किसी तरह का कोई सम्बन्घ नहीं रखना।’ निहितार्थ ये कि अकेले आदमी को टूट कर झुकने में देर ही कितनी लगती है।

तय होता है अमुक दिन पंचायत होगी और उसी में मामले का निपटारा होगा। वृहस्पति अपने जातिभाईयों से सलाह मशवरा करते हैं। उधर जाति के नाम पर चन्द्रमा के समर्थन में भी आधे पंच आ जाते हैं। राजनीतिक खेल शुरू हो जाता है। राजनीति के अखाड़े में पहुंचकर व्यक्तिगत भावनाएं, संवेदनाएं सदा कुचली ही जाती हैं। कोई भी मामला वहाँ वर्चस्व प्राप्ति के मोहरे से अधिक कुछ नहीं है। चन्द्रमा समर्थकों का मुख्य तर्क यह है कि एक बार आई हुई स्त्री ऐसे कैसे वापस हो जाएगी। हम देखते हैं कल पंचायत होती कैसे है। भैंस तो लाठी वाले के पास ही रहेगी। उधर वृहस्पति समर्थक यह कहते हुए बांहें चढ़ा रहे हैं कि हमारी स्त्री गई है, कोई हंसी खेल नहीं है। जब तक हाड़ के ऐवज में हाड़ यानी स्त्री के बदले स्त्री नहीं ले लेंगे तब तक चन्द्रमा को सुख से नहीं जीने देंगे। आज भी यह एक कटु यथार्थ है कि बदला लेने का सीधा सरल जरिया स्त्री है। उसकी इज्जत से खेल कर बदले की आग बुझायी जाती है। हमारे आसपास ऐसा है, इस अर्थ में आज भी हम बर्बर सामाजिक जीवन जीते हुए उम्र के दिनों को व्यतीत करते हैं। दोनों धड़ो के बीच एक स्त्री, स्त्री नहीं हुई, खिलौना हो गई। चन्द्रमा के अलावा हर कोई स्त्री को जीत कर वर्चस्व की राजनीति का धूर्त खेल खेलना चाहता है।

पंचायत जुड़ती है। चन्द्रमा और तारा तलब किए जाते हैं। तारा को बताना है कि वह किसके साथ रहना चाहती है। तो वह बताती है-

वा नारी नै घूंघट काडी, और पंचन में होगी ठाडी।
गुरू के घर में पग नहीं दूंगी, और मैं तो चन्दरमा कै ही रहूंगी।
और हाथ जोड़ के कहूं पंच थारै जचै जिस्यांई कीज्यौ 
पण मेरी बेई नाम गुरू बिसपत को मत लीज्यौ।

घूंघट निकाल कर तारा पंचों के बीच खड़ी होती है और कहती कि गुरू के घर में पैर भी नहीं रखूंगी और मैं तो चन्द्रमा के साथ ही रहूंगी। तारा पंचों से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती है कि आप चाहे जो भी फैसला करें लेकिन मेरे सामने गुरू वृहस्पति का नाम भी न लें।

इसके बाद कहने और सुनने के लिए क्या बाकी रह जाता है। लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज को सुनता कौन है! पंच फैसला सुनाते हैं कि चन्द्रमा तुम गुरू की पत्नी को वापस करो। उधर चन्द्रमा समर्थक कहते हैं ये फैसला एकतरफा है। पंचायत बिगड़ जाती है। हुल्लड़ मच जाता है। भगदड़ में कोर्ह कहां गिरता है कोई कहां। किसी की पगड़ी उछलती है तो किसी की धोती फटती है। धवले कहते हैं कि-

‘पंचात डटी नहीं डाटी। रहगी धरी दाड़ और बाटी।’ 

रोकने से भी कोई पंचायत में नहीं रुका। बेचारे गुरू वृहस्पति की घबराहट बढ़ गई परंतु उनके धड़े के लोग वर्चस्वशाली थे। कहने लगे ऐसे कहां तक डरेंगे। शास्तर से बात नहीं बनती दिखी तो इस बार वे शस्त्र के साथ आए और तारा को वृहस्पति के हवाले करवाया।

ये जिन्दगी बड़ी जानलेवा चीज है मित्रो। तारा ने गुरू के घर आकर चन्द्रमा को गाली देना शुरू कर दिया- ‘मुझे उस दुष्ट, उस हरामी चन्द्रमा से कोई प्रेम व्रेम नहीं था। वो तो तुम्हारे नाम से मुझे बहका कर ले गया और ले जाकर अपने घर में बैठा लिया।’ अब इसे क्या कहें ? तारा तब सच कह रही थी कि अब ? इसकी जांच किस नारको टेस्ट से की जाए ? उधर वृहस्पति ने अपने दिल को कौनसी विद्या से यह समझाया कि ताकत के बल पर लौटा कर लाई गई तारा अब उसकी हो गई ? ऐसा धुर विरोधाभासी जीवन कैसे जिया जा सकता है? मगर हमारे समाज की विवाह नामक संस्था से ऐसे विरोधाभासी जीवन को उपहार में पाकर हर शादीशुदा जोड़ा ऐसा ही विरोधाभासी जीवन जीने को अभिशप्त है। और यह तो कुछ भी नहीं ग्रामीण सामंती समाज में तो यहाँ तक है कि स्त्री के पति का निधन हो गया तो छोटे भाई का पछेवड़ा/चादर उसे ओढ़ायी जाती है। बच्चे-बच्ची गर्भ में होते हैं यह पता नहीं होता बच्चा होगा या बच्ची और रिश्ता पक्का कर दिया जाता है। गर्भ में ही तय हो गए रिश्तों में ऐसा होना आम बात है कि संयोग से यदि एक गर्भ से लड़का और एक से लड़की पैदा हो भी गए और उनका विवाह माता-पिता ने गोद में लेकर फेरे डलवाकर करवा भी दिया तो भी भारत जैसे देश में जहां कुपोषण बड़ी समस्या है। बच्चे मर भी जाते हैं। ऐसे में वह विवाहित बालिका अपने पति की मां की कोख से अगले पुत्र के आने की प्रतीक्षा करती है। कितने मजे की बात है बाल्यवस्था से ही पति की सेवा का सुख भोगती है! जिन्दगी की जिल्लतें प्रेम जैसी सौंदर्यपूर्ण भावना को भी टंटा बना देती है। वृहस्पति, तारा और चन्द्रमा का टंटा यहीं नहीं सुलटता। तारा की कोख से पुत्र का जन्म होते ही चन्द्रमा अपना पुत्र मांगने गुरू के पास आ जाता है। इस तरह गुरू वृहस्पति एक बार फिर मुश्किल में फंस जाते हैं। वृहस्पति कहते हैं- ‘ऐ बेटी के बाप चांद तू मुझे क्यों परेशान करने पर तुला है। तू जन्म का कंवारा बैठा है। तेरी शादी ही नहीं हुई तो पुत्र कहां से आ जाएगा ?’

तू जनम कंवारो धर्‌यौ बता तेरै छौरा खां सूं आवै
अरे ऐऽऽऽऽ बेटी का बाप चांद तू मोकू क्यों उकतावै।

फिर पंचायत। फिर वाद-विवाद। फिर स्त्री के बयान। स्त्री की आंतरिक शक्ति से ही संभव हुई इस स्वीकारोक्ति का विश्लेषण भी किए जाने लायक एक काम है कि वह कहती है- ‘मेरी कोख से जन्मे इस शिशु का पिता चन्द्रमा है।’
शिशु का नाम बुध रखा गया था। कहते हैं-

चंदा कू दियौ बुध, गुरू कूं दई तारा राणी 
कियो दूध को दूध पंच नै पाणी को पाणी।

धवले के अनुसार तो पंचों ने नीर-क्षीर फैसला किया। आपके अनुसार?
लोकगायक धवले ने पौराणिक कथा को पद में इस तरह से पुनर्सृजित किया है कि वह सदियों पुराने जीवन की कथा या कोरी काल्पनिक कथा न लगकर हमारे आज के जीवन की कथा लगती है। और हमारे मानसिक जगत की संरचना के साथ इस तरह की छेड़छाड़ करती है कि हम स्त्री-पुरूष सम्बन्ध की इस जटिल बहस पर पुनर्विचार करने को विवश होते हैं। लोक साहित्य लोक में इसी तरह विमर्शों के लिए जमीन तैयार करने का काम करता है।

आज भी हमारे ग्रामीण जीवन का यथार्थ सामंतवाद ही है। सारी चीजें ताकत और सामंती दृष्टि से ही तय होती है। और एक लोकगीत उस यथार्थ को हमारे सामने खोलकर रख देता है तो यही उसकी सार्थकता है। कुछ अधपढ़े अफसर और आवारा पूंजी किस्म के लोग जिन्होंने सत्ता बल से समाज में रसूख पाया हुआ है समाज को ऐसी दिशा देने में लगे हैं कि समाज में लोकगीतों का प्रचलन पिछड़ेपन की निशानी है। यह सही नजरिया नहीं है। असल में लोकगीत हमारी सांस्कृतिक विरासत का अंग है। हमें इस धरोहर को संचित करके संग्रहालय की वस्तु नहीं बनाना है बल्कि जीवन का हिस्सा बनाना है। ताकि हमारे दौर में बची-कुछी मानवीय चीजों पर हो रहे चौतरफा हमले से इन्हें बचाया जा सके।

Sunday, March 9, 2014

परोपकार


बहुत समय पहले की बात है एक विख्यात ऋषि गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे . उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के लड़के भी पढ़ा करते थे।
वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और सभी बड़े उत्साह के साथ अपने अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे थे कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में पड़ी ,
” आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं। “
आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।
ऋषिवर बोले , “ प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है . मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में हिस्सा लें .
यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी गुजरना पड़ेगा .”
तो क्या आप सब तैयार हैं ?”
” हाँ , हम तैयार हैं ”, शिष्य एक स्वर में बोले .
दौड़ शुरू हुई .
सभी तेजी से भागने लगे . वे तमाम बाधाओं को पार करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे . वहाँ बहुत अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर भी पड़े थे जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का अनुभव होता था .
सभी असमंजस में पड़ गए , जहाँ अभी तक दौड़ में सभी एक सामान बर्ताव कर रहे थे वहीँ अब सभी अलग -अलग व्यवहार करने लगे ; खैर , सभी ने ऐसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हुए।
“पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया , भला ऐसा क्यों ?”, ऋषिवर ने प्रश्न किया।
यह सुनकर एक शिष्य बोला , “ गुरु जी , हम सभी लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में पहुचते ही स्थिति बदल गयी …कोई दुसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था …और कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे ताकि बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े…. इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की .”
“ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं वे आगे आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ “, ऋषिवर ने आदेश दिया .
आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और पत्थर निकालने लगे . पर ये क्या जिन्हे वे पत्थर समझ रहे थे दरअसल वे बहुमूल्य हीरे थे . सभी आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने लगे .
“ मैं जानता हूँ आप लोग इन हीरों के देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं .” ऋषिवर बोले।
“ दरअसल इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था , और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों शिष्यों को मेरा इनाम है।
पुत्रों यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती है, जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा है . पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और उनका भला करने से नहीं चूकता है .